भ्रम और मकसद के बीच युद्ध

।।एमजे अकबर।।(वरिष्ठ पत्रकार)युद्ध शुरू करने के मामले में अमेरिका का रिकॉर्ड यूरोप की महान शक्तियों की तुलना में संदेहास्पद रहा है. 20वीं सदी में हुए निर्णायक विश्वयुद्धों को वह देर तक दूर से देखता रहा. पहले दो विश्वयुद्धों में अमेरिका को घसीटने में ब्रिटेन के मान-मनौवल की प्रमुख भूमिका रही. जर्मनी की गंभीर मूर्खताओं का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 1, 2013 3:20 AM

।।एमजे अकबर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
युद्ध शुरू करने के मामले में अमेरिका का रिकॉर्ड यूरोप की महान शक्तियों की तुलना में संदेहास्पद रहा है. 20वीं सदी में हुए निर्णायक विश्वयुद्धों को वह देर तक दूर से देखता रहा. पहले दो विश्वयुद्धों में अमेरिका को घसीटने में ब्रिटेन के मान-मनौवल की प्रमुख भूमिका रही. जर्मनी की गंभीर मूर्खताओं का तो इसमें हाथ था ही. हालांकि, अमेरिका साम्यवाद से भिड़ने के प्रति ज्यादा उत्सुक था, लेकिन नाटो और सोवियत संघ के बीच ‘आयरन कर्टेन’ (विभाजक दीवार) डालने के लिए हैरी ट्रमैन से ज्यादा विंस्टन चर्चिल को जिम्मेवार माना जा सकता है. साम्यवाद का भय अमेरिका को कोरिया ले गया. इस युद्ध में सिर्फ विराम आया है. यही उसे वियतनाम ले गया, जहां युद्ध खत्म तो हो गया पर वियतनाम की शर्तो पर.

अमेरिका के अलग-थलग रहने के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन इसमें अनिश्चितता की प्रमुख भूमिका रही. अमेरिका को इस बात की वाजिब चिंता थी कि जिस युद्ध को शुरू किया जायेगा, वह खत्म कैसे होगा? यूरोपीय उपनिवेशवादी युद्धों का लक्ष्य साफ हुआ करता था. मौजूदा शासकों को अपदस्थ करके उनकी जगह अपने वायसराय या आज्ञापालक महाराजाओं, नवाबों, शाहों को बैठा दिया जाये. अगर आप ‘सेवा भावना’ या विचारधारा के आधार पर कोई युद्ध करते हैं, जिसका मकसद दुनिया को बेहतर बनाना हो, तो उन्हें अंजाम तक पहुंचाना काफी मुश्किल होता है. यह सवाल हमेशा सामने होता है कि आखिर ‘बेहतर’ वास्तव में क्या है? ऐसे किसी युद्ध से वह बेहतर वास्तव में स्थगित हो जाता है, या उसकी रफ्तार तेज हो जाती है?

शीत युद्ध की समाप्ति के बाद अमेरिका आक्रामक होता गया. 9/11 के बाद वह खासतौर पर मुसलिम जगत से खतरा महसूस करने पर युद्ध करने को अपना नैतिक अधिकार मानता है. चूंकि ट्विन टॉवर पर किये गये हमले को गुप्त तरीके से अंजाम दिया गया था, इसलिए अमेरिका आतंकवाद के अंडरवर्ल्ड से इतनी ताकत से लड़ता है, जो परंपरागत युद्धों में भी नहीं दिखता. इसमें बेशुमार जानें जाती हैं और यह लोकतांत्रिक सभ्यता के बुनियादी विचारों को दोतरफा क्षति पहुंचाता है. जो जीवित बचे रह जाते हैं, उन्हें ग्वांटानामो भेज दिया जाता है. इससे बेहतर मौत है.

दुश्मन को खोजने के अमेरिकी जुनून की राह में आनेवाली सरकारें, ऐसा अपनी कीमत पर ही करती हैं. अगर उन्हें अमेरिका को हमलावर होने से रोकना है, तो उन्हें अपने राष्ट्रवाद, सामाजिक तानेबाने की मजबूती और और आत्मरक्षा की अपनी क्षमता के प्रति पूरी तरह निश्चिंत होना

चाहिए. अमेरिका ने गलतियां की हैं. इनमें सबसे ऊपर इराक है, जिसे जानमाल के भयावह नुकसान के बिना पटरी पर लाया जा सकता था. लेकिन एक औसत राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और उनके मूर्ख सलाहकारों ने इराकी लोगों का आकलन करने में गलती कर दी. हालांकि, सद्दाम हुसैन की पिलपिलाहट का उन्होंने सही आकलन किया था. आज इराक विश्व भू-राजनीति के केंद्र में आ गया है.

बराक ओबामा बुश नहीं हैं. हालांकि, वे एक ऐसे नोबल पुरस्कार विजेता राष्ट्रपति के तौर पर इतिहास में दर्ज होंगे, जिन्होंने युद्धों को रोकने से ज्यादा, उन्हें शुरू करने की दिशा में कदम बढ़ाया. 9/11 की हवाएं ओबामा के पीछे हैं, लेकिन वे जानते हैं कि ये हवाएं महाशक्ति की नैया को पार लगानेवाली होनी चाहिए, नाव तोड़ देनेवाले तूफान जैसी नहीं. उन्हें मालूम है कि एक बार वे अपनी नौसेना को कूच करने का आदेश देंगे, तो वापसी मुमकिन नहीं है. यह उनकी साख में न भरपायी कर सकने लायक सेंध लगा देगा. वे इतने होशियार जरूर हैं कि भ्रम को एक समस्या समङों, न कि मौके की तरह उसकी ओर लपकें, जैसा कि बुश ने किया था. ओबामा को सीरिया में अपने लक्ष्य के बारे में पता है. उन्हें यह भी एहसास है कि इन्हें सीमित युद्ध से हासिल नहीं किया जा सकता, जिसकी अनुमति जनमत दे सकता है.

ओबामा असद को दमिश्क से बाहर करना चाहते हैं, लेकिन इसके लिए अमेरिकी सेना को जमीन पर उतरना होगा. सीरिया के विद्रोही किसी के नियंत्रण में नहीं हैं. अगला विकल्प सीरिया के असलहे को नष्ट करना, उसके सैनिकों का मनोबल तोड़ना और उसके मित्र हिजबुल्लाह पर हमला करना है. आखिरी, लेकिन काम का विकल्प सैन्य सहयोगी के रूप में ईरान और रूस की सीमाएं उजागर करना है. खतरा यह है कि ईरान और रूस कदम उठाने के लिए समय का चुनाव अपने हिसाब से करेंगे. रूस सीरिया का इस्तेमाल सऊदी अरब के खिलाफ जवाबी कार्रवाई करने के लिए कर सकता है. यह दिलचस्प है कि अमेरिका सुन्नियों के पक्ष में है, जबकि 9/11 की साजिश कट्टरपंथी सुन्नियों ने रची थी. ईरान एक पहेली है, जो अतार्किक विकल्पों को प्रोत्साहित कर रहा है. अमेरिकी रणनीतिकारों के लिए अस्थिर क्षेत्र में ईरान का स्थायित्व चिंता में डालनेवाला है. वाशिंगटन ने जटिल की जगह देखा-समझा रास्ता चुना है.

अगस्त 2014 में पहले विश्वयुद्ध पर गोष्ठियों का दौर चल रहा होगा, जिसने सीरिया और मध्य-एशिया को वह रूप दिया, जो आज भी युद्धों को बुलावा दे रहा है. एक मिसाइल हमला इस युद्ध की सौंवी जयंती की शुरुआत करेगा. फिर जो हो रहा है, उसमें नया क्या है?

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