पहले खुद के अंत: करण को शुद्ध करें
क्या झारखंडियों के हित में स्थानीय नीति नहीं बननी चाहिए? 14 सालों से इस नीति पर ड्रामा होता रहा. राज्य के पहले मुख्यमंत्री ने जो तर्क दिया था, वह सही था, लेकिन सत्ता के लोभ में स्थानीय नेता स्पष्टवादी बनने से बच रहे हैं. अभी नये मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि स्थानीय नीति दो […]
क्या झारखंडियों के हित में स्थानीय नीति नहीं बननी चाहिए? 14 सालों से इस नीति पर ड्रामा होता रहा. राज्य के पहले मुख्यमंत्री ने जो तर्क दिया था, वह सही था, लेकिन सत्ता के लोभ में स्थानीय नेता स्पष्टवादी बनने से बच रहे हैं. अभी नये मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि स्थानीय नीति दो महीने में बना दूंगा. क्या मुख्यमंत्री राज्य के लोगों के हितैषी बन सकेंगे?
अभी तक यहां के लोगों का विकास नहीं हो पाया है. फिर मैथिली, मगही, भोजपुरी को दूसरी राजभाषा बनाने के लिए व्याकुल क्यों हैं? क्या बिहार में झारखंड की स्थानीय भाषाओं को स्थान मिला है? यदि हां, तो यहां भी मिलना चाहिए, लेकिन यदि नहीं, तो फिर ऐसा प्रयास क्यों? कहीं ऐसा न हो दामोदर की भाषा पीछे और गंगा की भाषा आगे चली जाये. इसलिए स्थानीय नीति बनाने से पहले अंत:करण शुद्ध करना जरूरी है.
अर्जुन पानुरी, धनबाद