सुधार के संकेतों से खुशफहमी न पालें

इस समय सरकार को अर्थव्यवस्था में सुधार के तात्कालिक रुझानों से कोई खुशफहमी न पालते हुए, संभावित चुनौतियों को ध्यान में रख कर विकास की रफ्तार को टिकाऊ बनाये रखने के लिए फैसले लेने चाहिए. हाल की कुछ खबरें संदेश दे रही हैं कि देश आर्थिक मोरचे पर तरक्की की राह पर है. मिसाल के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 23, 2015 2:05 AM
इस समय सरकार को अर्थव्यवस्था में सुधार के तात्कालिक रुझानों से कोई खुशफहमी न पालते हुए, संभावित चुनौतियों को ध्यान में रख कर विकास की रफ्तार को टिकाऊ बनाये रखने के लिए फैसले लेने चाहिए.
हाल की कुछ खबरें संदेश दे रही हैं कि देश आर्थिक मोरचे पर तरक्की की राह पर है. मिसाल के लिए, केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के तथ्य कह रहे हैं कि बीते फरवरी में औद्योगिक उत्पादन पांच फीसदी की दर से बढ़ा है. यह बीते तीन माह में सबसे तेज प्रगति है.
यह आंकड़ा उत्साहवर्धक है, क्योंकि बीते साल फरवरी में औद्योगिक उत्पादन 2 फीसदी नीचे गिर गया था. औद्योगिक गतिविधियों में तेजी के लिहाज से पूंजीगत वस्तुओं का क्षेत्र महत्वपूर्ण माना जाता है.
इस क्षेत्र में भी फरवरी में करीब साढ़े आठ फीसदी वृद्धि हुई है, जबकि बीते साल फरवरी में करीब 17 फीसदी की गिरावट आयी थी. वृद्धि का यही चलन उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में भी दिखा है, जिसमें पांच फीसदी की तेजी आयी है.
औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि का रुझान बाजार पर सकारात्मक असर डाल रहा है. मसलन, बीते दो वित्त वर्ष में दोपहिया व चारपहिया वाहनों की बिक्री में गिरावट के रुझान दिखे थे, लेकिन इस वित्त वर्ष की शुरुआत के साथ ही बाइक, कार और ट्रक की बिक्री की रफ्तार तेज हुई है. औद्योगिक उत्पादन की रफ्तार बढ़ने का असर रोजगार पर भी पड़ा है. खबर है कि बिजनेस स्कूलों और इंजीनियरिंग कॉलेजों से कौशल व दक्षता हासिल कर चुके युवाओं की भर्ती के लिए कंपनियों के बीच बीते कुछ महीनों से एक तरह से होड़ सी मची है.
वे आइटी इंजीनियरों और प्रबंधकों की भर्ती ऊंची कीमत देकर कर रहे हैं. औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि-दर बढ़ाये रखने के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने हाल ही में संकेत दिये कि अगले दो सालों में आरबीआइ छोटे वित्तीय बैंक और एक पोस्टल बैंक खोलने के लिए लाइसेंस जारी कर सकता है. रिजर्व बैंक को वित्तीय बैंक के लिए 40 से ज्यादा आवेदन मिले हैं. कुल मिला कर, हालिया आंकड़े भरोसा जगाते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था और पूंजी बाजार नये आत्मविश्वास से लबरेज है. अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के आकलन भी इस आत्मविश्वास को रेखांकित कर रहे हैं. इसी माह विश्व बैंक की छमाही रिपोर्ट आयी है.
इसमें कहा गया है कि भारत में जीडीपी की वृद्धि दर अगले दो सालों में 8 फीसदी तक पहुंच सकती है. विश्व बैंक को उम्मीद है कि इस साल यह दर 7.5 फीसदी रहेगी और 2016-2018 के दौरान भारत में पूंजी-निवेश की वृद्धि दर 12 फीसदी होने से वर्ष 2017-18 तक भारत की विकास दर 8 फीसदी पर पहुंच जायेगी. वैश्विक संस्थाओं के आकलन को आधार बना कर ही प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने हाल में कहा कि भारत की विकास-दर तो चीन को भी मात दे रही है.
बहरहाल, अर्थव्यवस्था के मोरचे से आ रही सकारात्मक खबरों के बीच कुछ बातों पर सतर्कतापूर्वक गौर करने की जरूरत है. पहली, उदारीकृत बाजार-व्यवस्था के इस युग में 20 खरब डॉलर की भारतीय अर्थव्यवस्था की नब्ज 770 खरब डॉलर की वैश्विक अर्थव्यवस्था के रुझानों से डूबती-उठती है, न कि देश के भीतर कार्यकारी स्तर पर लिये गये कुछ आर्थिक निर्णयों से. ज्यादा पीछे न जाकर वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के वक्त को ही याद करें.
तब वाजपेयी सरकार उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में आयी वैश्विक गिरावट के चक्र में फंसी, जिससे 2000 से 2003 के बीच जीडीपी की औसत विकास-दर पांच फीसदी से नीचे आ गयी थी, जबकि उस दौरान सरकार ने सड़क, ऊर्जा और इंफ्रास्ट्रर परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश की शुरुआत की थी. इस समय भी वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी से उबरी नहीं है और उपभोक्ता वस्तुओं के बाजार पर संकट गहराने के आसार हैं. दूसरी बात, विकास-दर के मामले में भारत का चीन से आगे निकलना भले आकर्षक जान पड़े, पर पांच गुनी बड़ी अर्थव्यवस्था से भारतीय अर्थव्यवस्था तुलना उचित नहीं.
चीनी अर्थव्यवस्था सौ खरब डॉलर के आंकड़े को पार कर चुकी है. बड़ा आकार हासिल करने के बाद हर अर्थव्यवस्था की रफ्तार घटती है, फिर भी वह वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने की स्थिति में होती है. तीसरी बात, देश की करीब 60 फीसदी आबादी कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर है.
जाहिर है, कृषि क्षेत्र हमारी अर्थव्यवस्था की बढ़वार पर असर डालने में सक्षम है. हालिया अनुमानों में इस साल मॉनसून के 50 फीसदी कमजोर होने की बात कही गयी है. साथ ही, असमय बारिश ने गेहूं और आलू की फसल को बड़े पैमाने पर बर्बाद किया है, जिसके चलते बड़ी संख्या में कर्ज में फंसे किसान जान दे रहे हैं.
ऐसे में इस समय सरकार को अर्थव्यवस्था में सुधार के तात्कालिक रुझानों से कोई खुशफहमी न पालते हुए, संभावित चुनौतियों को ध्यान में रख कर विकास की रफ्तार को टिकाऊ बनाये रखने के लिए फैसले लेने चाहिए.

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