नेताजी के बारे में खत्म हो गोपनीयता

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार नेताजी आजादी की लड़ाई लड़नेवाले नेताओं की पहली पंक्ति में थे. गांधी के खुले विरोध के बावजूद वे दूसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे. यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है. देश की भावी पीढ़ी को उनके बारे में सब कुछ जानने का हक है. लगभग पंद्रह साल पहले एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 25, 2015 5:38 AM
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
नेताजी आजादी की लड़ाई लड़नेवाले नेताओं की पहली पंक्ति में थे. गांधी के खुले विरोध के बावजूद वे दूसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे. यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है. देश की भावी पीढ़ी को उनके बारे में सब कुछ जानने का हक है.
लगभग पंद्रह साल पहले एक बार मौका मिला था जापान जाने का. कार्यक्रम तय करने से पहले जापान ने जानना चाहा था कि यदि मैं किसी खास जगह जाना चाहूं, तो उसे कार्यक्रम में जोड़ा जा सकता है.
मैंने कहा कि मैं दो स्थान अवश्य देखना चाहूंगा- एक हिरोशिमा जहां मनुष्यता कलंकित हुई थी, और दूसरा रेंकोजी मंदिर जहां नेताजी सुभाषचंद्र बोस की ‘अस्थियां’ रखी गयी हैं. जापान जानेवाला हर भारतीय इस मंदिर में अवश्य जाना चाहता है.
सचमुच, मैं उस मंदिर में एक तीर्थ-यात्र का भाव लेकर ही गया था. जापान में मेरा पहला कार्यक्रम वहीं रखा गया था. रेंकोजी मंदिर के बाहर ही नेताजी की एक प्रतिमा स्थित है और भीतर जहां अस्थि-कलश रखा था, वहां अगरबत्तियां जल रही थीं. वातावरण में एक मीठी शांति जैसी चुप्पी थी. मुङो लगा मैं एक ऐसी उपस्थिति को महसूस कर रहा हूं, जो अपनेपन और आश्वस्ति का भाव लिये है. मैं समझ रहा था कि जो मैं अनुभव कर रहा हूं, वह यथार्थ नहीं है, लेकिन मन पर बुद्धि की लगाम कब लगी है?
सुभाषचंद्र बोस के प्रति भारत की जनता में एक कमाल की श्रद्धा है. जवाहरलाल नेहरू ने कभी कहा था, ‘नेताजी के प्रति भारत के भावों की इससे बेहतर और क्या अभिव्यक्ति हो सकती है कि उनके निधन के बाद भी हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि नेताजी हमारे बीच नहीं हैं.’
मैं जब उस मंदिर में पहुंचा था, तो और कोई वहां था नहीं. मंदिर के प्रमुख संत ने मुङो बताया था कि 18 अगस्त, 1945 को नेताजी की अस्थियां उस मंदिर में लायी गयी थीं. तब वर्तमान प्रमुख संत के पिता वहां प्रमुख थे. अस्थियां लायी तो गयी थीं अंतिम क्रियाओं के लिए, पर उन्होंने अस्थियां सुरक्षित रखने का निर्णय किया और तबसे यह मंदिर नेताजी की अस्थियों का मंदिर बन गया. जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, जो 1957 में उस मंदिर में गये थे.
क्या नेहरू यह निश्चित करने गये थे कि अस्थियां नेताजी की ही हैं? ऐसे सवाल इस संदर्भ में अकसर उठते रहे हैं.जहां एक ओर नेताजी की मृत्यु को लेकर रहस्य बना रहा, वहीं इस तरह के आरोप भी लगते रहे कि नेहरू हमेशा आशंकित रहे कि कहीं सुभाष आ न जायें. इस संदर्भ में यह भी कहा जाता रहा कि नेहरू नहीं चाहते थे कि सुभाष भारत लौटें; नेहरू की तुलना में नेताजी देश में कहीं अधिक लोकप्रिय थे; नेताजी यदि होते, तो वे ही देश के पहले प्रधानमंत्री बनते..
नेहरू और सुभाष के रिश्तों को लेकर अब एक नया विवाद देश में उठ खड़ा हुआ है. कुछ ही दिन पहले यह खबर आयी कि जवाहरलाल नेहरू और बाद की सरकार 1969 तक नेताजी के परिवार वालों की जासूसी करती रही थी.
इस संदर्भ में कुछ गोपनीय दस्तावेजों के खुलासे की बात सामने आयी और यह मांग जोर पकड़ने लगी है कि नेताजी से जुड़ी सभी गोपनीय फाइलों को अब जनता की जानकारी में आने देना चाहिए. लेकिन सरकारें वैदेशिक रिश्तों की दुहाई देकर इससे इनकार करती रही हैं. अब प्रधानमंत्री मोदी इस विषय में फिर से सोच रहे हैं.
नेताजी के संबंध में गोपनीयता अब खत्म होनी ही चाहिए. दुनिया भर के देशों में एक समय-सीमा के बाद गोपनीय फाइलें उजागर कर दी जाती हैं. अब इन फाइलों को भी उजागर होना ही चाहिए. यदि इन फाइलों में ऐसा कुछ है भी, जो कुछ देशों से हमारे संबंधों पर असर डाल सकता है, तो पारदर्शिता के लिए इस खतरे को भी उठा लेना चाहिए.
नेताजी आजादी की लड़ाई लड़नेवाले नेताओं की पहली पंक्ति में थे. गांधी के खुले विरोध के बावजूद वे दूसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे. यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है. देश की भावी पीढ़ी को उनके बारे में सब कुछ जानने का हक है. महात्मा गांधी को सबसे पहले राष्ट्रपिता कहनेवाले और नेहरू को अपना बड़ा भाई माननेवाले सुभाष किन मुद्दों पर इनसे भिन्न सोच रखते थे? मुसोलिनी या हिटलर के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण था?
आनेवाली पीढ़ी को ऐसे कई सवालों के उत्तर चाहिए. इसलिए राजनीतिक ईमानदारी और पारदर्शिता का तकाजा है कि अनावश्यक गोपनीयता को राजनीति से दूर किया जाये.
सुभाष की मृत्यु का विवाद भी अभी तक सुलझा नहीं है. राजनीतिक हितों के लिए ऐसे मुद्दों को उलझा कर रखना भी अनुचित है. अब तक की जांच के नतीजे तो यही कहते हैं कि नेताजी विमान-दुर्घटना के शिकार हो गये थे. रेंकोजी मंदिर में रखी अस्थियां भी अब भारत आनी चाहिए. उस दिन मंदिर के प्रमुख पुजारी ने मुझसे कहा था, ‘आप पत्रकार हैं, अपनी सरकार से कहिए यह अमानत ले जाये.
मैं नहीं जानता मेरे बाद इन अस्थियों को यही सम्मान मिलता रहेगा अथवा नहीं.’ अब समय आ गया है, जो हो चुका है, उसे हम स्वीकारें. नेताजी को समझने का एक तरीका यह भी है. देश के आनेवाले कल को समझने के लिए बीते हुए कल के उस पóो को पढ़ना जरूरी है, तभी दृष्टि साफ होगी.

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