यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक के माध्यम से करीब 65 प्रतिशत भारतीय आबादी को सस्ती दरों पर अनाज मुहैया कराने का लक्ष्य रखा है.
निस्संदेह यह केंद्रीय योजना भूख से संघर्ष कर रहे करोड़ों लोगों को कम से कम दो वक्त के आहार की गारंटी देती है, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस कानून की सफलता को लेकर संशय की स्थिति बनी हुई है, क्योंकि विश्व की कुल भूखी जनसंख्या में एक चौथाई भारत में निवास करती है.
जिसकी भूख मिटाने के लिए सरकार को लगभग 7.5 करोड़ टन अनाज जुटाने होंगे. मगर ताजा आंकड़ों पर गौर करें तो आज देश में बमुश्किल 6 करोड़ टन अनाज की उपलब्धता ही संभव है. इसके अलावा, देश की जन वितरण प्रणाली के ध्वस्त होने के कारण अन्न का सुचारु वितरण जहां एक बड़ी समस्या है, वहीं कृषिगत भूमि पर विशाल जनसंख्या का दबाव एवं खाद्यान्न उत्पादन दरों में कमी होना भी खाद्य सुरक्षा कानून की सफलता पर सवाल खड़े कर रहा है.
यही नहीं, बड़े पैमाने पर गोदामों की अनुपलब्धता और सुरक्षित अन्न भंडारण के अभाव से भी हजारों टन खाद्यान्न प्रतिवर्ष बर्बाद हो रहा है. शायद भोजनाधिकार कानून के आलोक में इस परेशानी से निबटना और इसका सामयिक हल ढूंढ़ना आज सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. बहरहाल इस योजना को बिचौलियों व कालाबाजारियों से बचाने के लिए प्रभावी गवर्नेस बहाल करना होगा, खास कर ऐसे समय में जब सरकार में शामिल कई मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप चले आ रहे हैं.
ऐसे में सरकार यदि केवल सियासी फायदे से खाद्य सुरक्षा विधेयक पर काम कर रही है, तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि देश में बुनियादी समस्याओं को दूर किये बगैर यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जायेगी!
रवींद्र पाठक, जमशेदपुर