अमेरिकी दबाव से बाहर आये सरकार

देश के चालू खाते का घाटा चिंताजनक स्तर पर पहुंचना डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में गिरावट का अहम कारण है. इस घाटे को पाटे बिना रुपये की फिसलन पर लगाम मुश्किल है. इसलिए जरूरी है कि देश पेट्रोलियम आयात पर डॉलर में होनेवाले भारी–भरकम खर्च को कम करे. इसी कड़ी में पेट्रोलियम मंत्री […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 3, 2013 3:19 AM

देश के चालू खाते का घाटा चिंताजनक स्तर पर पहुंचना डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में गिरावट का अहम कारण है. इस घाटे को पाटे बिना रुपये की फिसलन पर लगाम मुश्किल है.

इसलिए जरूरी है कि देश पेट्रोलियम आयात पर डॉलर में होनेवाले भारीभरकम खर्च को कम करे. इसी कड़ी में पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने सुझाव दिया है कि ईरान से कच्चे तेल का आयात बढ़ा कर भारत तेल आयात बिल में 8.5 अरब डॉलर तक की कटौती कर सकता है. ऐसा इसलिए, क्योंकि ईरान को तेल आयात का भुगतान रुपये में किया जा रहा है, जिस पर रुपये के अवमूल्यन का असर नहीं पड़ता.

हालांकि भारत सरकार के रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसा करना आसान नहीं दिखता. अमेरिकी दबाव के सामने झुकते हुए भारत ने पिछले दो वर्षो में ईरान से होनेवाले तेल आयात में बड़े पैमाने पर कटौती की है. वित्त वर्ष 2010-11 तक सऊदी अरब के बाद ईरान भारत का दूसरा सबसे बड़ा कच्च तेल आपूर्तिकर्ता देश था, लेकिन 2012-13 में यह छठे स्थान पर खिसक गया.

इस वर्ष अब तक ईरान से महज 20 लाख टन कच्चे तेल का आयात किया गया है. पेट्रोलियम मंत्रलय चालू वित्त वर्ष के बचे समय में इसे बढ़ा कर 130 लाख टन करना चाहता है. रुपये के अवमूल्यन से उत्पन्न आर्थिक संकट के वक्त में ईरान की ओर देखने की यह नीति विभिन्न समितियों की सिफारिशों के अनुकूल है, जो समयसमय पर ईरान से कच्चे तेल का आयात बढ़ाने पर जोर देती रही हैं. सुझाव तो यह भी दिया जाता रहा है कि भारत को ऐसे अन्य देशों से भी तेल आयात बढ़ाना चाहिए, जो डॉलर की जगह रुपये में भुगतान लेने को तैयार हैं.

सीरिया ऐसा ही देश है, लेकिन अमेरिकी कोप से बचने के लिए भारत सरकार इस सुझाव की भी अनदेखी करती रही है. यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि चीन भी ईरान से कच्चे तेल का आयात अपनी मुद्रा में ही करता है और अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद उसने इस आयात को बढ़ाया है. इसलिए भारत का आसन्न आर्थिक संकट, बाकी चीजों के साथ इस बात की भी मांग कर रहा है कि हमारे आर्थिक फैसले संप्रभु तरीके से लिये जायें, कि अमेरिकी दबाव में आकर. खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहनेवाले देश से इतनी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए.

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