बढ़ती यौन हिंसा और निस्तेज नैतिकता

।।अनंत विजय।।(वरिष्ठ पत्रकार, आइबीएन7)हर साल जब भी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े सामने आते हैं, महिलाओं के खिलाफ अपराध में चिंताजनक बढ़ोतरी दिखाई देती है. अब तो महिलाओं के लिए सुरक्षित माने जा रहे इलाकों में भी सामूहिक दुष्कर्म, यौन उत्पीड़न और तेजाब हमले जैसी घटनाएं होने लगी हैं. राष्ट्रीय राजधानी में पिछले साल […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 4, 2013 3:11 AM

।।अनंत विजय।।
(वरिष्ठ पत्रकार, आइबीएन7)
हर साल जब भी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े सामने आते हैं, महिलाओं के खिलाफ अपराध में चिंताजनक बढ़ोतरी दिखाई देती है. अब तो महिलाओं के लिए सुरक्षित माने जा रहे इलाकों में भी सामूहिक दुष्कर्म, यौन उत्पीड़न और तेजाब हमले जैसी घटनाएं होने लगी हैं. राष्ट्रीय राजधानी में पिछले साल 16 दिसंबर को हुई सामूहिक दुष्कर्म की घटना के बाद राजपथ से लेकर जनपथ तक जनउबाल दिखा. पिछले दिनों मुंबई में महिला पत्रकार के साथ गैंगरेप के बाद फिर से हमारा समाज उद्वेलित है. बलात्कार जैसे घिनौने अपराध को लेकर सख्त से सख्त कानून की मांग के लिए आवाज बुलंद हो रही है. लेकिन बलात्कारियों के लिए सख्त सजा की मांग के कोलाहल के बीच हम समाज में फैल रहे इस रोग के मूल में नहीं जा पाते हैं.

जरूरत इस बात पर भी विचार करने की है कि हमारे समाज में बलात्कार जैसी घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं? देश में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध पर सुप्रीम कोर्ट भी द्वारा समय-समय पर चिंता जाहिर की जाती रही है. हाल में भी सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताते हुए पूछा था, हमारे समाज और सिस्टम में क्या खामी आ गयी है कि पूरे देश में बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि यह सामाजिक मूल्यों में गिरावट का नतीजा है या पर्याप्त कानून नहीं होने की वजह से हो रहा है या फिर कानून को लागू करनेवाले इसे ठीक तरह से लागू नहीं कर पा रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट के इन तीन सवालों का ही जब हम जवाब ढूंढते हैं, तो लगता है कि इनके जवाबों में छुपी वजहों के अलावा भी कुछ ऐसी वजहें हैं, जो महिलाओं के प्रति जघन्य अपराधों को बढ़ावा दे रही हैं.

हमारा समाज नैतिक मूल्यों के लिए सदियों से शासक वर्ग और धर्म गुरुओं को अपना नायक मानता रहा है. लेकिन सत्तर के दशक के बाद से राजनेताओं और धर्मगुरुओं के नैतिक मूल्यों में जिस तरह का ह्रास दिखा है, वह किसी भी सभ्य समाज के लिए चिंता की बात है. महिलाओं को लेकर समाज के रहनुमाओं के मन में जो विचार हैं, वे बहुधा उनकी जुबान पर भी आ जाते हैं. अगर हम हाल के ही चार बयानों को देखें तो महिलाओं को लेकर उनकी राय साफ हो जायेगी. शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद कहते हैं-’लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है. कुदरत ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वे घर संभालें, अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें.’ रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास ने कहा, ‘महिलाओं को मंदिर, मठ, देवालय में अकेले नहीं, बल्कि अपने पिता, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए, नहीं तो उनकी सुरक्षा को खतरा है.’ गोवा के मुख्यमंत्री रहे कांग्रेसी नेता दिगंबर कामत ने कहा, ‘महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए, क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना देती है. समाज के बदलाव में महिलाओं की महती भूमिका है और उन्हें आनेवाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए.’ इससे भी आगे बढ़ते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के रक्षा मंत्री रह चुके सपा नेता मुलायम सिंह यादव कहते हैं, ‘अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वे संसद में अधिक संख्या में आयीं, तो वहां जम कर सीटियां बजेंगी.’ केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तो सारी हदें तोड़ते हुए कह दिया था, ‘बीबी जब पुरानी हो जाती है तो मजा नहीं देती है.’ महिलाओं को लेकर हमारे रहनुमाओं के इस तरह के बयानों को आखिर किस रूप में देखा जाये?

हमारे ज्यादातर रहनुमा यह जान कर संतुष्ट हो जाते हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में हम दुनिया के कई देशों से पीछे हैं. लेकिन आंकड़ों की ही बात करें तो हम पाते हैं कि 1990 से 2008 के बीच हमारे देश में बलात्कार के मामले दोगुने से भी ज्यादा हो गये हैं. इन वारदातों में स्कूलों में मासूमों के साथ दरिंदगी, धर्मगुरुओं द्वारा भगवान के नाम पर भक्तों का यौन शोषण आदि भी शामिल है. लेकिन इन सबसे बेखबर हमारा शासक वर्ग सिर्फ संसद में कड़ा कानून पारित करवा कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ले रहा है. जनहित के विभिन्न मसलों पर एक-दूसरे के विरोध में तांडव करनेवाले सांसद दागियों और सजायाफ्ता को संसद में पहुंचाने के लिए अपने सारे विरोध छोड़ कर एकजुट हो जाते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने दो साल से ज्यादा की सजा पाये नेताओं और चुनाव के वक्त जेल में रहनेवालों के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी. लेकिन पक्ष और प्रतिपक्ष दागियों को चुनाव लड़ाने को लेकर इतने चिंतित हैं कि बहुत मुमकिन है कि संसद के इसी सत्र में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटनेवाला कानून पास हो जाये. ऐसे कदमों से समाज में यही संदेश जाता है कि हमारा शासक वर्ग अपराधियों के साथ है. कानून बनानेवालों को समाज से ज्यादा अपनी चिंता है. तभी तो वोट मांगने के लिए जनता के सामने हाथ फैलानेवाली पार्टियां जनता को अपने आय के स्नेत जानने के हक से वंचित करने के लिए भी एकजुट हैं. ये ऐसे मुद्दे हैं, जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं. जिन लोगों पर लोकतंत्र को बचाने की जिम्मेवारी है, वे लोकतंत्र से मिले हक का इस्तेमाल जनहित के लिए नहीं, बल्कि अपने लाभ के लिए कर रहे हैं.

दुष्कर्म के बढ़ते मामलों के लिए जटिल न्यायिक प्रक्रिया, इंसाफ मिलने में हो रही देरी और न्यायिक प्रक्रिया के दौरान पीड़िता के साथ होनेवाला सलूक भी बहुत हद तक जिम्मेवार है. दिल्ली गैंगरेप की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट को करीब आठ महीने पहले सौंपी गयी, लेकिन अब तक पूरा फैसला नहीं आया है. जिस वारदात को लेकर पूरे देश में गुस्से का गुबार उठा था, जब उसी का यह हाल है, तो यह अंदाजा लगाना आसान है कि सुदूर इलाकों और पिछड़े क्षेत्रों की महिलाओं को कितनी जल्दी और कितना न्याय मिल पाता होगा. जाहिर है, दुष्कर्म के खिलाफ कड़े कानून बना देने भर से इस पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है. इसकी जांच और सुनवाई प्रक्रिया में भी आमूल-चूल बदलाव लाना होगा. ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि पीड़िता का एक ही बार मजिस्ट्रेट के सामने बयान हो, ताकि वह बार-बार उस हादसे को बताने के लिए अभिशप्त न हो. इससे न्यायिक प्रक्रिया में तेजी आयेगी और आरोपियों को अलग-अलग बयानों में से लूप होल ढूढ़ने का मौका नहीं मिलेगा. दरअसल, इस मसले में सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है और उसके सवाल भी. इसके जवाब में देश को इंतजार है एक ऐसे नायक का, जो हमारे सामाजिक ताने-बाने को सहेज कर रख सकें.

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