इस व्यवस्था का इलाज भी सोचिए
।।कृष्ण प्रताप सिंह।।(वरिष्ठ पत्रकार)बचपन में नानी एक किस्सा सुनाती थीं- एक मां का जवान बेटा चोरी करते पकड़ा और जेल भेजा गया तो शोक व क्षोभ से भरी हुई वह उससे मिलने गयी. लेकिन बेटे ने आव देखा न ताव, जेल में खाना खाने के लिए मिले तसले से उस पर इतने जोर का वार […]
।।कृष्ण प्रताप सिंह।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
बचपन में नानी एक किस्सा सुनाती थीं- एक मां का जवान बेटा चोरी करते पकड़ा और जेल भेजा गया तो शोक व क्षोभ से भरी हुई वह उससे मिलने गयी. लेकिन बेटे ने आव देखा न ताव, जेल में खाना खाने के लिए मिले तसले से उस पर इतने जोर का वार किया कि उसकी नाक कट गयी और खून बहने लगा. भारी हो-हल्ले के बीच पुलिस ने उस पर काबू पाकर पूछताछ शुरू की तो उसने कहा-’मेरी मां का कुसूर मेरे कुसूर से बड़ा है और मेरे जेल में होने की असली जिम्मेवार वही है. बचपन में मैं एक पड़ोसी के घर से चाकू चुरा लाया तो इसने हंस कर कहा था- ले जा, रसोई में छिपा दे. उसी वक्त मुझसे कान पकड़वाती, उठा-बैठक कराती, पड़ोसी के घर ले जाकर चाकू वापस करा आती, तो मैं अपने किये की शर्म महसूसता और चोर नहीं बनता.’
देश की राजधानी में पिछले साल 16 दिसंबर को एक छात्रा से जघन्यता की इंतिहा कर देनेवाले दरिंदों में शामिल एक अवयस्क को सिर्फ तीन साल की सजा मिलने से उद्वेलित जो लोग अब अपराधी अवयस्कों के लिए सजा से संबंधित कानून के नरम प्रावधानों पर गुस्सा उतार रहे और उन्हें बदलने की मांग कर रहे हैं, उनको यह किस्सा याद होता, तो निश्चित ही वे अपेक्षाकृत बड़े आयाम में सोचते और उस व्यवस्था को ही बदलने पर जोर देते, जो किस्से में उल्लेखित मां की तरह न ठीक से अपना फर्ज निभाती है और न अपनी बनायी उन परिस्थितियों की जिम्मेवारी लेती है, जो न सिर्फ अपराधी मानसिकता का निर्माण करती हैं, बल्कि उसकी सहूलियत के हिसाब से नैतिकताएं गढ़ कर मूल्यहीनता के हवाई घोड़ों पर चढ़ी रहती हैं. यह व्यवस्था लोगों के सोच की दिशा तय करने का अधिकार तो अपनी मुट्ठी में रखना चाहती है, लेकिन उस दिशा के सही होने को लेकर ज्यादा फिक्रमंद नहीं रहती.
इधर तो इसने एक बड़ी ही भ्रांत धारणा फैला दी है. यह कि हर समस्या का समाधान एक कड़े कानून में समाहित है. कई संगठन इसीलिए कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना होते ही कड़े कानून की मांग लेकर उपस्थित हो जाते हैं. इससे व्यवस्था को बड़ी मदद मिलती है. वह ऐसा माहौल बनाने की जिम्मेवारी से बच जाती है, जिसमें अपराध को घटित ही न होने देने पर जोर हो. मसलन अब कोई नहीं पूछ रहा कि अपराधियों को दंडित करा देने मात्र से व्यवस्था का फर्ज पूरा हो जाता है? या कि उस अवयस्क के मन-मस्तिष्क में इतनी क्रूरता कहां से और कैसे घुस आयी? व्यवस्था द्वारा जानबूझ कर निर्मित ऐसे समाज से ही तो नहीं, जिसमें किसी गुण, मूल्य या कानून की कोई प्रतिष्ठा नहीं है, और जो जितना समर्थ है, वह इन सबकी उतनी ही बड़ी अप्रतिष्ठा का भागी है?
व्यवस्था मजे में रहती है अगर किसी खास मामले को लेकर उद्वेलित लोग समझ न पायें कि कानून कड़ा हो जाये, पर उसे लागू कराने वाली व्यवस्था इतनी ढीली है कि उसके किसी भी अंग अथवा संस्थान का जनविश्वास असंदिग्ध न हो, तो कोई लाभ नहीं होता. महिलाओं के विरुद्घ यौन अपराधों की सजा तय करनेवाले कानून को खासा कड़ा कर दिये जाने पर भी स्थिति नहीं बदली है, क्योंकि बदनीयत व्यवस्था भले कहे कि कानून के सामने सब बराबर हैं, आसाराम जैसों को हफ्तों तक यह साबित करने का मौका दिये रहने से भी नहीं चूकती कि शक्ति व सामथ्र्य हो तो इस बराबरी की भरपूर खिल्ली उड़ायी जा सकती है.
आजकल यह व्यवस्था सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक यानी हर क्षेत्र में बराबरी की भावना से मुंह चुरा रही है और उसके बल से बली हुई गैरबराबरी अमीर-गरीब, सबल-निर्बल और शोषक-शोषित जैसे विभाजनों को और मजबूत करती जा रही है. सारे सशक्तीकरण के बावजूद दलित-वंचित व स्त्रियां सॉफ्ट टारगेट हैं और उन पर हमले सबसे आसान बने हुए हैं. ऐसे में जुवेनाइल कानून अधिकतम कड़ा कर दिया जाये या उक्त अवयस्क की सजा कई गुनी बढ़ा दी जाये, उसका असर उतना नहीं होगा, जितना व्यवस्था द्वारा वास्तविक समानता के लिए कमर कसने का होगा. ऐसी वास्तविक समानता आने पर ही स्त्रियों को देखने की पुरुष दृष्टि और वंचितों को देखने की अमीर दृष्टि बदलेगी. साथ ही, उन पर हमले का हौसला भी टूटेगा. जब तक ऐसा नहीं होता, हमें र्दुव्यवस्था के विषफलों के नाना दंश सहने ही पड़ेंगे.
जनकवि अदम गोंडवी ने यों ही नहीं पूछा था-इस व्यवस्था ने नयी पीढ़ी को आखिर क्या दिया? सेक्स की रंगीनियां और गोलियां सल्फास की! हां, इसके अलावा अनैतिक व भ्रष्ट राहों से गुजर कर मालदार होने की हवस भी दी है. इसलिए जरा यह भी सोचिए कि किशोरों को अपराधी बना रही व्यवस्था को इसकी सजा कैसे दी जाये? इस व्यवस्था को इलाज के लिए किस अस्पताल या सुधारगृह में भेजा जाये और कैसे!