सिर्फ पढ़ा देना शिक्षक का काम नहीं
।।प्रो यशपाल।।(वैज्ञानिक व शिक्षाविद्) बात जब पहले और अब की शिक्षा और शिक्षक में तुलना की आती है, तो उसे अच्छे-बुरे में नहीं आंका जा सकता. आज के शिक्षक भी अच्छे हैं, अपना काम कर रहे हैं. हालांकि सभी को अच्छा या खराब कहना सही नहीं होगा. पहले के शिक्षक भी कुछ बहुत अच्छे होते […]
।।प्रो यशपाल।।
(वैज्ञानिक व शिक्षाविद्)
बात जब पहले और अब की शिक्षा और शिक्षक में तुलना की आती है, तो उसे अच्छे-बुरे में नहीं आंका जा सकता. आज के शिक्षक भी अच्छे हैं, अपना काम कर रहे हैं. हालांकि सभी को अच्छा या खराब कहना सही नहीं होगा. पहले के शिक्षक भी कुछ बहुत अच्छे होते थे, तो कुछ नहीं. यह जरूर था कि पहले के शिक्षकों के पास विद्यार्थियों को पीटने का अधिकार हुआ करता था. जरा सी गलती हुई कि विद्यार्थी का हाथ और उनकी छड़ी. यह हमारे जमाने के शिक्षकों का रवैया होता था. आज ऐसा नहीं है. हमारे समय के शिक्षकों में एक और खास बात थी. अगर कोई विद्यार्थी मेधावी है और कुछ करना चाहता है, तो वह किसी भी समय अपने शिक्षक से बेहिचक संपर्क कर सकता था. उनके घर तक जा सकता था. कोई प्रतियोगी परीक्षा होती थी, तो शिक्षक विद्यार्थियों को अलग से समय देते थे. खास कर मेधावी विद्यार्थियों को उस परीक्षा की तैयारी करवाते थे, वह भी बिना किसी फीस या स्वार्थ के. समय के साथ यह खत्म होता चला गया.
आज भी मुझे अपने स्कूल के एक शिक्षक बहुत याद आते हैं. वे जबलपुर में थे. उनका नाम पवार था. वे कुछ शरारती किस्म के शिक्षक थे. वे गणित के शिक्षक थे, लेकिन भूगोल भी पढ़ाया करते थे. यह बात 1942 के आसपास की है. वह समय काफी अलग था, क्योंकि तब द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था, जिसमें भारत ब्रिटेन की तरफ से जर्मनी के खिलाफ लड़ रहा था. यह लड़ाई यूरोप में चल रही थी. भारत के जवान उस लड़ाई में मर रहे थे. पवार हमें इसे कहानी की तरह सुनाया करते थे. वे हमें बताते थे कि हमारी फौज वहां गयी, उनकी फौज यहां आयी, पर जिस दिन यह पता चला कि हिटलर की विजय हुई, तो हम सब तालियां बजा रहे थे. चूंकि वह ब्रिटिश राज विरोधी समय था. वे हमें भूगोल पढ़ाने के साथ ही इतिहास की भी जानकारी दे देते थे. भूगोल पढ़ाने का उनका यह अनूठा तरीका था. सब कुछ कहानीनुमा चलता था. लेकिन इतने समय बाद आज के दौर में हमें यह समझने की जरूरत है कि हर योग्य शिक्षक इस तरह की गुणवत्ता से युक्त नहीं होता.
आज लोग कह रहे हैं कि देश में पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर जोर न देकर सिर्फ छोटी-छोटी नौकरियों पर ध्यान दिया गया. जैसे बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिग (बीपीओ) आदि पर, जिसके कारण आज देश की हालत डगमगाती नजर आ रही है. मैं इस नजरिये पर ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता हूं, लेकिन इतना जरूर है कि आज की उच्च शिक्षा जिस स्तर पर है, वह इससे बेहतर हो सकती थी. हमने थोड़ी नकलबाजी की है, लेकिन डरने की जरूरत नहीं है, यह ठीक हो जायेगी. असल में हमारे यहां इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (आइटी), फाइनेंस, मैनेजमेंट, फाइनेंशियल मैनेजमेंट में अब भी थोड़ा गुलामी का माहौल है. यही चीज हमारे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आइआइएम) में आयी और अन्य अच्छे विश्वविद्यालयों में भी पहुंची. इससे फाइनेंस की तरफ ज्यादा लोग चले गये. बस इतना ही नहीं, जो लोग मैनेजमेंट में जाते हैं, वे भी फाइनेंस करना चाहते हैं. कोर मैनेजमेंट नहीं करते. जो आइटी में गये, वे भी यह सोच कर गये कि जल्दी से इस क्षेत्र में उन्हें नौकरी मिल जायेगी. फिर वे भी विदेशों में नौकरी करनेवाले लोगों की तरह टाइ लगा कर नौकरी करेंगे. आज की स्थिति में सुधार के लिए हमें नकल करने की इस आदत को छोड़ना होगा.
इस शैक्षणिक सत्र से दिल्ली विश्वविद्यालय में चार वर्षीय अंडरग्रेजुएट कोर्स की शुरुआत हुई है. मेरा मानना है कि स्नातक में एक वर्ष और जोड़ना ठीक है, लेकिन इस एक वर्ष को अन्य रूपों में जोड़ना चाहिए था. एक वर्ष बढ़ाने का यह मतलब नहीं होना चाहिए था कि विद्यार्थियों में कोर्स का और भार डाल दो. बल्कि उन्हें कहना चाहिए था कि इस एक वर्ष में ‘तुम लोग’ नयी-नयी चीजें खोजो, अपने मन से काम करो. तब इस एक वर्ष का असली फायदा होता. मुझे लगता है कि सभी कोर्सो के लिए चार वर्षीय अंडरग्रेजुएट कोर्स लागू करना ठीक नहीं है.
पिछले दिनों दुनिया के श्रेष्ठ 500 शिक्षण संस्थानों की एक सूची जारी हुई थी. इसमें भारत का सिर्फ एक संस्थान शामिल था- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आइएसबी), बेंगलुरु. यह निराशाजनक स्थिति है, लेकिन इससे यह समझना कि हमारी शिक्षा का स्तर बहुत पीछे हो गया है, गलत होगा. ऐसी सूची जारी करने का अपना तरीका होता है. ऐसी चीजों पर हमें बहुत गौर करने की जरूरत नहीं है. जब हम ऐसी चीजों के पीछे भागना छोड़ देंगे, तभी आश्चर्यचकित कर देनेवाली कुछ नयी चीजें कर सकते हैं. जब हम खोजी प्रवृत्ति रखेंगे, तभी नयी और बेहतरीन चीजें निकाल सकते हैं. पीछे-पीछे चलते हुए हम रवींद्र नाथ टेगौर की कविताएं नहीं निकाल सकते थे. यह खोजी प्रवृत्ति से हासिल हुई है. याद रखिए, जब कोई आपसे पूछता है कि आप कहां हैं? तो आप जिस स्थान पर होते हैं उसका नाम बताते हैं, लेकिन वहां सिर्फ आपका शरीर होता है, आप नहीं. आप कुछ सोच रहे होते हैं और उस सोच के साथ होते हैं. इसलिए एक स्थान पर बैठ कर पढ़ते रहना ही बेहतर पढ़ाई को नहीं दरसाता. यह बात समझने की जरूरत है कि सिर्फ रटना ही पढ़ाई नहीं होती. सबसे जरूरी है रचनात्मकता के साथ पढ़ाई. रचनात्मकता को पढ़ाया नहीं जा सकता, सिखाया नहीं जा सकता, यह हर विद्यार्थी के अंदर होती है. बस इसे समझने की जरूरत है.
हमेशा कहा जाता है कि शिक्षक का सम्मान करो, पर शिक्षक क्या है, इसे भी तो समङों. सिर्फ बने-बनाये नोट्स को पढ़ा देना, यह शिक्षक का काम नहीं होता. शिक्षक की किसी बात से आप संतुष्ट न हों, तो पहले उस काम को खुद करके देखें. अगर सही लगे तब मानें, नहीं तो मत मानें. मैं तो मानता हूं कि शिक्षक को बेहतर बनाने का काम विद्यार्थी ही करते हैं. जब तक विद्यार्थियों के मन में ऐसे प्रश्न जन्म नहीं लेंगे, जिससे उन्हें अब तब के अपने ज्ञान को नये सिरे से समझने की जरूरत पड़े, तब तक अच्छी पढ़ाई नहीं हो सकती. आज के बच्चे मुझसे प्रश्न पूछते हैं, तो मैं सोचने लगता हूं कि इसका उत्तर क्या होगा? क्योंकि उनके प्रश्न ही ऐसे होते हैं. एक बार एक बच्चे ने मुझसे पूछा कि ब्रह्मांड को किसने खोजा? मैं सोचने लगा. मैंने पाया कि हर व्यक्ति के लिए ब्रह्मांड अलग है. वह जो देखता, समझता है, उसके लिए वही ब्रह्मांड है. इसलिए मैंने उसे उत्तर दिया कि हर बच्चा ब्रह्मांड की खोज करता है!
(मंजूषा सेंगर से बातचीत पर आधारित)