वंजारा का पत्र और मोदी का राजधर्म

इस्तीफे के बहाने लिखा गुजरात के निलंबित डीआइजी डीजी वंजारा का पत्र सामने आने के बाद पीएम पद की दावेदारी ठोंक रहे नरेंद्र मोदी और उनके सहारे केंद्र में सत्तासीन होने के सपने देख रही भाजपा के पास बचाव में तर्क नहीं बचा है. बचाव में भाजपा मात्र यह कह सकती है कि जो आइपीएस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 5, 2013 2:45 AM

इस्तीफे के बहाने लिखा गुजरात के निलंबित डीआइजी डीजी वंजारा का पत्र सामने आने के बाद पीएम पद की दावेदारी ठोंक रहे नरेंद्र मोदी और उनके सहारे केंद्र में सत्तासीन होने के सपने देख रही भाजपा के पास बचाव में तर्क नहीं बचा है. बचाव में भाजपा मात्र यह कह सकती है कि जो आइपीएस अधिकारी ‘फेक एनकाउंटर’ का दागी और जेल में बंद हो, उसकी बात को सही क्यों मानें? लेकिन भारतीय दंड-प्रक्रिया के नियम किसी आरोपी को गवाह मानने से इनकार नहीं करते.

मौका ताड़ कर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने ट्वीट भी यही किया है. वंजारा ने पत्र में साफ कहा है कि ‘मुझे और मेरे ऑफिसरों को एनकाउंटर के विभिन्न मामलों को फर्जी मानते हुए गिरफ्तार किया गया है, तो उन नीति-नियामकों को भी गिरफ्तार करना चाहिए, क्योंकि हमने फील्ड ऑफिसर होने के नाते सरकार की सुचिंतित नीतियों पर अमल किया था. सरकार नजदीक से हमारी गतिविधियों को प्रेरित, निर्देशित और उसकी निगरानी कर रही थी.’

इस स्वीकारोक्ति से भारतीय संविधान को ‘एकमात्र पवित्र पोथी’, राष्ट्र को ‘एकमात्र देवता’ और राष्ट्रवाद को ‘एकमात्र धर्म’ बतानेवाली मोदी की हालिया गर्वोक्तियां तार-तार होती दिख रही हैं. फिलहाल मोदी चुप हैं. उनके लिए समय का पहिया फिर पीछे लौट गया है, जब कोर्ट का फैसला आने के पहले तक गुजरात की राजसत्ता को दंगों का दोषी मानते हुए सोहराबुद्दीन, इशरत जहां, तुलसी प्रजापति और सादिक जमाल के एनकाउंटर को फर्जी कहा जाता था. वंजारा का पत्र बताता है कि गुजरात में विकास चाहे जितना और जैसा हुआ है, ‘राजधर्म का पालन’ नहीं हुआ.

हालांकि जेल में बंद वंजारा को भले ही अब अंतिम शरण के रूप में धर्म की याद सता रही हो, पर वे संत नहीं हैं. इस्तीफे का पत्र लिखने बावजूद उनके बारे में लोग यही मानेंगे कि बिल्ली ने नौ सौ चूहे खाने के बाद हज को जाने का फैसला किया है. हो सकता है मोदी और भाजपा वंजारा के पत्र से हुए विस्फोट के बावजूद अपना चेहरा, चरित्र और चाल बेदाग बचा ले जाएं, और वंजारा बाद में संत का चरित्र भी अपना लें, पर भारतीय राजनीति के सामने यह यक्षप्रश्न अब बना रहेगा कि जब राजसत्ता खुद अपराधिक हो उठे तो लोगों को इनसाफ की उम्मीद कहां से लगानी चाहिए?

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