।।पंकज चतुर्वेदी।।
(स्वतंत्र टिप्पणीकार)
विगत दो वर्षो से भी अधिक समय से चल रहा सीरियाई विवाद अब एक ऐसे गंभीर मोड़ पर पहुंच चुका है, जहां ऐसा लगता है कि सीरिया भी अपने पड़ोसी इराक की गति को न प्राप्त हो जाये. सेना के रास्ते 2000 से ही सरकार पर काबिज बशर-अल-असद को राजसत्ता विरासत में मिली है. एक दशक से भी अधिक से सीरिया की सत्ता पर काबिज असद चिकित्सक होने के बाद भी अपने विरोधियों के लिए हिंसा के सिवा कोई अन्य उपचार खोजने में असफल रहे हैं. यद्यपि असद ने अपने भाषणों में कई बार कहा कि वह सीरिया की समस्या का राजनीतिक रूप से हल चाहते हैं, किंतु असद सरकार के पिछले कुछ कदम उनके कथन के अनुरूप न होकर इशारा कर रहे हैं कि वह लड़ने-मिटने को तैयार हैं. सीरिया में एक कार्यकाल सात वर्ष का होता है. पहले कार्यकाल के लिए ही असद ने करीब 97 फीसदी मतों से जीत हासिल कर गद्दी संभाली, लेकिन समय के साथ उन पर पद का मद हावी होता चला गया और व्यापक समर्थन हासिल करनेवाले शासक का जन विरोधी रवैया शुरू हो गया. सीरिया के लोग अब तेरह साल के कार्यकाल के बाद इतना साहस जुटा सके हैं कि असद सरकार की मानव अधिकार हनन की नीतियों पर हमला बोल सकें.
पुराने बैरी रूस और अमेरिका इस बार सीरिया के मामले पर फिर से आमने-सामने हैं. रूस सीरिया की घटनाओं के लिए असद के साथ है, जबकि अमेरिका फिर इराक व सद्दाम हुसैन की तरह सीरिया का सफाया करने के मंसूबे बना चुका है. अमेरिकी सीनेट के विदेश मामलों की एक समिति ने सीरिया पर हमले का प्रस्ताव बहुमत से पारित कर दिया है, पर इसका असली फैसला आगामी सप्ताह में सीनेट द्वारा होना है. उस फैसले से तय होगा कि ओबामा की सीरिया को ठीक करने की घोषणा सिर्फ उन्हीं की है या पूरे अमेरिका की राजनीतिक बिरादरी उसमें शामिल है. उधर, रूस ने स्पष्ट कर दिया है कि यदि सीरिया के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र की स्वीकृति के बिना की जायेगी, तो उसे सीरिया पर अमेरिका का आक्रमण माना जायेगा, न कि वैश्विक बिरादरी का रासायनिक हथियारों के प्रयोग के विरुद्ध उठाया गया कदम. युद्ध के बादलों के बीच अमेरिकी रक्षा मंत्रलय पेंटागन का सैन्य बेड़ा सीरिया के नजदीक जमा हुआ है. ये बादल बरसेंगे या सिर्फ गरजने के बाद शांत हो जायेंगे, यह देखना अभी बाकी है.
सीरिया में पिछले 28 महीनों से जारी लड़ाई में एक लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और दस लाख से अधिक शरणार्थियों के रूप में तुर्की जैसे पड़ोसी देश एवं लेबनान, जॉर्डन, इराक और मिस्र जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की मानें तो सीरिया में जारी संघर्ष के कारण देश छोड़ने वालों में अधिकतर मासूम बच्चे हैं. इसके अतिरिक्त दो लाख से अधिक बच्चे सीरिया में ही विस्थापितों की भांति रह रहे हैं. संघर्ष की यह विभीषिका पूर्णत: वैश्विक शर्म का विषय है. यह सब एक दु:स्वप्न के जैसा है, जिसे सारी दुनिया देख रही है. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार सीरिया के विवाद के जारी रहने के बाद पिछले बीस सालों की यह सबसे बड़ी शरणार्थी समस्या है. इसके पूर्व रवांडा में हुए नरसंहार के समय भारी तादाद में जन पलायन हुआ था. जाहिर है मानवता के खिलाफ इस तरह के अपराधों को अंजाम देने का परिणाम बुरा ही होगा.
इस बीच बड़ा प्रश्न यह भी कि क्या अमेरिका के द्वारा सीरिया पर हमला किये जाने मात्र से सब कुछ व्यवस्थित हो पायेगा? नि:संदेह सीरिया में वर्तमान में जो भी कुछ घटित हो रहा है, वह मानवीयता के विरुद्ध है, लेकिन दुनिया में कहीं भी युद्ध या युद्ध की संभावनाओं के साथ अमेरिका का नाम जुड़ा होने से दुनिया की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था पर प्रहार की आशंका और बलवती हो जाती है. उत्तर कोरिया एवं उसके नेपथ्य में चीन की उपस्थित से दुनिया में संभावित संकट के अस्थायी समाधान के बाद अब सीरियाई कोलाहल सब की चिंता का विषय है.
इन घटनाओं का असर भारत पर भी पड़ना तय है. देश की वर्तमान आर्थिक हालत के बीच अमेरिका का सीरिया से टकराव भारतीय रुपये को रुलाने के लिए पर्याप्त होगा. यह स्पष्ट है कि अमेरिका के आगे असद की शक्ति अपर्याप्त है. सीरिया के विरुद्ध मिसाइल दागे जाने की झूठी खबर से ही देश-दुनिया के शेयर बाजार चित हो गये थे एवं रुपया बुरी तरह घायल हुआ था. इससे साफ है कि यदि सीरिया पर हमला हुआ तो चोट भारत को भी लगेगी. इस संभावित हमले के प्रभावों से डॉलर के आधार पर काम रही वैश्विक एवं भारतीय अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए बहुत क्षमताओं की जरूरत होगी. इन क्षमताओं की उपलब्धता कहां से और कैसे होगी, इसका उत्तर अभी तो किसी के भी पास नहीं है.