यही शिक्षक दिवस की गरिमा है!
।।राजीव कुमार चौबे।।(प्रभात खबर, रांची)पांच सितंबर की सुबह, चाय के साथ अखबार खोला, तो पता चला कि आज शिक्षक दिवस है. वैसे भी, स्कूली पढ़ाई पूरी होने के बाद ऐसे दिवसों की खबर अखबारों से ही मिलती है. शिक्षक दिवस पर अखबार कुछ बदला–बदला लग रहा था. कांग्रेस–भाजपा के झगड़ों, भ्रष्टाचार–दुष्कर्म की खबरों, आडवाणी–सचिन के […]
।।राजीव कुमार चौबे।।
(प्रभात खबर, रांची)
पांच सितंबर की सुबह, चाय के साथ अखबार खोला, तो पता चला कि आज शिक्षक दिवस है. वैसे भी, स्कूली पढ़ाई पूरी होने के बाद ऐसे दिवसों की खबर अखबारों से ही मिलती है. शिक्षक दिवस पर अखबार कुछ बदला–बदला लग रहा था. कांग्रेस–भाजपा के झगड़ों, भ्रष्टाचार–दुष्कर्म की खबरों, आडवाणी–सचिन के संन्यास की अटकलों की जगह गुरु की महिमा से पन्ने रंगे हुए थे. पता नहीं, अखबारवालों को सचमुच गुरुओं की चिंता है या यह पाठकों का जायका बदलने की महज कवायद है? जो भी हो, बदलाव सभी को सुहाता है.
तो भला शिक्षक दिवस भी बदलाव से कैसे बच पाता. पांच सितंबर 1962 से शुरू हुए इस दिवस के पीछे मकसद महान था. लेकिन हमने इसे इतना बदल डाला कि इसकी आत्मा से लेकर शरीर तक बदल गया. हमें जीवन में अच्छे–बुरे के बीच अंतर बतानेवाले गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश मानते हुए, उनकी दी हुई शिक्षा के लिए उन्हें मन से नमन करने के लिए यह परंपरा शुरू की गयी. लेकिन, दुख की बात है कि यह दिवस अपना अर्थ खो रहा है, या खो चुका है कहूं तो ज्यादा सही होगा. आप सोच रहे होंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं. तो दोस्तों वहां चलते हैं, जहां से बात शुरू हुई थी, यानी अखबार पर.
अखबार में शिक्षक दिवस से जुड़ी खबरें तो छपी थीं, लेकिन शिक्षा की बदहाली और उसके बाजारीकरण पर कहीं कोई चिंता नहीं दिखी. अगर संपादकीय पन्ने पर ऐसा कुछ छपा हो तो माफ करें, क्योंकि मैं कभी–कभार ही इस पन्ने पर नजर डाल पाता हूं. अखबार में शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित कार्यक्रमों की बड़ी–बड़ी तसवीरें छपी थीं, जिनमें कहीं शिक्षिकाएं जलवे बिखेर रही थीं, तो कहीं छात्राएं. जन संचार की पढ़ाई के दौरान पत्र–पत्रिकाओं में तसवीर की महत्ता के बखान में हमें बताया गया था कि एक तसवीर दस हजार शब्दों के बराबर होती है. इन तसवीरों में, मंच पर परफॉर्म कर रही छात्राओं की भाव–भंगिमाएं और दर्शक के रूप में हाथों में नाश्ते की प्लेट और कोक लिए बैठी, अपनी शिष्याओं पर कुरबान हो रही शिक्षिकाओं की नजरें क्या कह रही थीं, यह शायद बताने की जरूरत नहीं. यह सब देख कर (पढ़ कर नहीं, क्योंकि पढ़ने लायक कुछ था नहीं) अपना बचपन याद आ गया, जब हम थोड़े से रुपये लेकर स्कूल जाते थे और मिल–जुल कर शिक्षक दिवस का आयोजन करते थे. टॉफी, मिठाई का दौर तो था, लेकिन आइटम गीतों पर छात्र–छात्राएं और शिक्षक –शिक्षिकाएं कमर नहीं मटकाते थे. कार्यक्रम तब भी होते थे, लेकिन वे शिक्षक दिवस की गरिमा के अनुरूप होते थे. ‘जीवन में गुरु का महत्व’ पर निबंध लेखन, कविता पाठ और वाद–विवाद का आयोजन होता था. जैसा कि हम जानते हैं, बदलाव प्रकृति का नियम है, तो हमें इस बदलाव का हिस्सा बनना होगा या इसे बदलना होगा. तय आपको करना है.