भ्रष्टाचार निरोधी कदमों की दिशा

सभी चाहते हैं कि भ्रष्टाचार पर रोक लगे, भ्रष्टाचारी दंडित हों; लेकिन राजकाज सिर्फ सद्इच्छा से नहीं चलता. जैसे किसी रोग के उपचार के लिए उसके कारण व लक्षण की सही पहचान जरूरी है, वैसे ही भ्रष्टाचार की समाप्ति के उपायों की सफलता भ्रष्टाचार के कारण और लक्षण की सही पहचान पर निर्भर करती है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 1, 2015 5:15 AM
सभी चाहते हैं कि भ्रष्टाचार पर रोक लगे, भ्रष्टाचारी दंडित हों; लेकिन राजकाज सिर्फ सद्इच्छा से नहीं चलता. जैसे किसी रोग के उपचार के लिए उसके कारण व लक्षण की सही पहचान जरूरी है, वैसे ही भ्रष्टाचार की समाप्ति के उपायों की सफलता भ्रष्टाचार के कारण और लक्षण की सही पहचान पर निर्भर करती है. केंद्र की नयी सरकार का एक प्रमुख चुनावी वादा भ्रष्टाचार निवारण का भी रहा है. इस वादे को निभाने के क्रम में केंद्रीय कैबिनेट ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन को मंजूरी दी है.
इसके तहत भ्रष्टाचार को गंभीर श्रेणी के अपराध में रखना, सजा की न्यूनतम अवधि 6 माह से बढ़ाकर 3 साल और अधिकतम पांच से बढ़ाकर सात साल कैद करने के अतिरिक्त भ्रष्टाचार से संबंधित मुकदमों का निपटारा दो साल के भीतर करना शामिल है. विधि आयोग ने ऐसे उपायों के बारे में 254वीं रिपोर्ट में जिक्र किया था. भ्रष्टाचार निरोधक संशोधन विधेयक, 2013 राज्यसभा में लंबित है और संशोधन इसी का हिस्सा होंगे. भ्रष्टाचार पर अंकुश की दिशा में उठा कदम तभी सराहनीय कहा जायेगा, जब वह कारगर हो. सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार रोकने के उपाय नये नहीं हैं.
संशोधन विधेयक यूपीए के समय का है. भ्रष्टाचार निरोधक कानून तो 27 साल पुराना है. इस कानून के रहते भ्रष्टाचार के मामलों में फैसला औसतन आठ साल में आया, तो दोष कानून का नहीं बल्कि न्यायपालिका पर लदे मुकदमों के बोझ का है. भ्रष्टाचार निरोधक कानून के रहते अगर ज्यादातर मामलों में दोषसिद्धि नहीं हो पायी तो वजह कानून से ज्यादा उस सत्ता-संरचना में खोजा जाना चाहिए, जिसमें ओहदे व रसूखवाले लोगों के लिए कानून से लुकाछिपी खेलना संभव बना रहता है.
संशोधनों का जोर सजा कठोर बनाने और मामलों का निपटारा जल्दी करने पर है, पर भ्रष्टाचार के जांच की एजेंसी और मुकदमों पर फैसला देनेवाली संस्था में सुधार के कदम उठाये बिना ये बातें संभव नहीं जान पड़ती. देश का सत्तावर्ग आंदोलनों के बाद भी भ्रष्टाचार निरोधी संस्था के तौर पर लोकपाल या कोई कारगर संरचना नहीं खड़ी कर पाया है.
यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ भ्रष्टाचार की प्रकृति में भी परिवर्तन आया है. पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप वाले विकास के समय में भ्रष्टाचार और सार्वजनिक नैतिकता दोनों को पुनर्परिभाषित करना शेष है.

Next Article

Exit mobile version