।।अवधेश आकोदिया।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
अमेरिकी की उपस्थिति किसी अंतरराष्ट्रीय आयोजन को किस हद तक प्रभावित कर सकती है, जी-20 का शिखर सम्मेलन इसकी ताजा मिसाल है. जिस संगठन का गठन वर्ष 2008 के वित्तीय संकट के बाद दुनियाभर में आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने के लिए किया गया, वह अब इस चर्चा में मशगूल है कि अमेरिका को सीरिया के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करनी चाहिए या नहीं. जिस मंच का उपयोग दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक गिरावट को रोकने की तरकीब खोजने के लिए होना चाहिए था, उसे अमेरिका ने अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का अड्डा बना दिया.
ऐसे समय में, जब विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है, सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित जी-20 सम्मेलन का मकसद से भटकना इसके औचित्य पर ही सवाल खड़े करता है. सम्मेलन से पहले उम्मीद जतायी जा रही थी कि विकासशील देशों को आर्थिक संकट से उबारने के लिए कोई न कोई तरकीब जरूर निकाली जायेगी, लेकिन सीरिया मुद्दे के चलते बात बीच में ही अटक गयी. आर्थिक संकट और अमेरिकी फेडरल रिजर्व के प्रोत्साहन पैकेज वापसी पर बोले सभी देश, लेकिन इसके तोड़ के बारे में किसी ने बात नहीं की. अमेरिका और बाकी विकसित देशों को सिर्फ यह कह कर बख्श दिया कि उनकी मौद्रिक नीतियों का असर सीमाओं के बाहर हो रहा है. यदि जल्द ही इन नीतियों को नहीं छोड़ा गया, तो विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था तबाह हो जायेगी.
इस बीच ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) देशों का वैश्विक आर्थिक अस्थिरता से निपटने के लिए 100 अरब डॉलर का संघर्ष कोष बनाने का निर्णय एक सकारात्मक पहल है. डरबन में ब्रिक्स विकास बैंक बनाने का भी फैसला हुआ था, लेकिन तकनीकी स्तर पर मतभेद होने के कारण मामला बीच में ही अटक गया. सम्मेलन में भारत की भूमिका की बात करें तो सेंट पीटर्सबर्ग में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उपस्थिति हाजिरी लगाने तक ही सीमित रही. वे इस बार भी मजबूत लीडर के रूप मे खुद को पेश नहीं कर पाये. हालांकि, उन्होंने यह सवाल जरूर उठाया कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व की ओर से चरणबद्ध तरीके से राजकोषीय प्रोत्साहन वापस लेने से विकासशील देशों को भारी नुकसान हो रहा है. इससे डॉलर का पलायन बढ़ा है, जिससे इन देशों की मुद्रा की कीमत कम हो रही है. क्या भारत जैसे बड़े मुल्क के मुखिया को इसके इतर कुछ नहीं बोलना चाहिए था? यह भारतीय नेतृत्व की ही नाकामी है कि जी-20 में वह उस मुकाम को हासिल नहीं कर पाया है, जिसका वह हकदार है.
जहां तक सीरिया का सवाल है, यह मुद्दा औपचारिक रूप से जी-20 के एजेंडे में शामिल नहीं था. हालांकि, इसके बावजूद पूरे आयोजन पर इसकी छाया साफतौर पर दिखाई दी. इस मसले पर जी-20 में शामिल देश स्पष्ट रूप से दो धड़ों में बंटे हुए हैं. एक की कमान अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के हाथों में है, तो दूसरे की अगुवाई रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन कर रहे हैं. सम्मलेन में दोनों के बीच जम कर तकरार हुई. ओबामा ने सख्त संदेश देने के लिए पुतिन से मुलाकात भी नहीं की.इससे पहले संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत सामंथा पावर के इस बयान ने आग में घी का काम किया कि रूस रूस उस देश को सरंक्षण प्रदान कर रहा है, जिसने खुलेआम वीभत्स रासायनिक हमले को अंजाम दिया. जी-20 सम्मेलन के दौरान ब्लादीमीर पुतिन इसी लाइन पर डटे रहे कि अमेरिका को सुरक्षा परिषद से किसी भी प्रकार की कार्रवाई की उम्मीद करने से पहले सीरिया के खिलाफ मजबूत सबूत पेश करने चाहिए. चीन का भी यही मत है. जी-20 के ज्यादातर देश सीरिया पर कार्रवाई के पक्ष में नहीं हैं. हां, यह जरूर है कि वे रूस और चीन की तरह मुखरता से अपना विरोध नहीं जता रहे. भारत और इंडोनेशिया पहले ही इस मुद्दे के राजनीतिक समाधान की बात कह चुके हैं.
आश्चर्यजनक रूप से ब्राजील और मेक्सिको भी अमेरिका का विरोध कर रहे हैं. केवल फ्रांस ही ऐसा देश है, जो अमेरिका का खुल कर समर्थन कर रहा है. वहीं, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, जापान, जर्मनी और यूरोपीय संघ इस मुद्दे पर कुछ भी बोलने से बच रहे हैं. इस बीच ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून का बयान वाशिंगटन को सुकून देने वाला है. कैमरून ने दावा किया है कि दमिश्क में हुए रासायनिक हमले को लेकर उनके हाथ नये सबूत लगे हैं. गौरतलब है कि तकरीबन हर मामले में अमेरिका के साथ खड़ा रहने वाला ब्रिटेन सीरिया के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के पक्ष में नहीं है. कुछ भी हो, जी-20 के सीरियामय होने के कारण, कई महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दे पीछे छूट गये, जो निराश करनेवाला है.