चीनी कूटनीति में बौद्ध धर्म का तड़का
चीन को पांच साल के भीतर भारत में 20 अरब डॉलर का निवेश करना है. लेकिन, नौ महीने होने जा रहे हैं, अभी उसका मुहूर्त तक नहीं निकला है. जो भारतीय निर्यात चीनी बाजार में बढ़ना चाहिए था, मार्च 2015 में 1445.69 मिलियन डॉलर और कम हो गया. वेबसाइट ‘सीना वेईपो’ इस समय चीन की […]
चीन को पांच साल के भीतर भारत में 20 अरब डॉलर का निवेश करना है. लेकिन, नौ महीने होने जा रहे हैं, अभी उसका मुहूर्त तक नहीं निकला है. जो भारतीय निर्यात चीनी बाजार में बढ़ना चाहिए था, मार्च 2015 में 1445.69 मिलियन डॉलर और कम हो गया.
वेबसाइट ‘सीना वेईपो’ इस समय चीन की सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग साइट है, जिस पर प्रधानमंत्री मोदी धीरे-धीरे छा रहे हैं. चीनी भाषा में वेई, ‘माइक्रो’ के लिए इस्तेमाल होता है, और पो का अर्थ है ‘ब्लॉग’. ‘सीना (चाइना) वेईपो’ की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि इस पर रोजाना दस करोड़ ‘हिट्स’ दर्ज होते हैं. पांच मई को ‘सीना वेईपो’ पर मोदी जी का एक संदेश नमूदार हुआ- ‘ हैलो चाइना! वेईपो के माध्यम से चीनी दोस्तों, भाइयों-बहनों से संपर्क बढ़ाना चाहता हूं.’ प्रधानमंत्री मोदी का यह पैगाम पेइचिंग स्थित भारतीय दूतावास के माध्यम से माइक्रोब्लॉग ‘सीना वेईपो’ को भेजा गया था. ‘सीना वेईपो’ पर यह संदेश देखने के लिए 14 हजार 217 हिट्स पांच मई को ही दर्ज हुए, और चीन में मोदी जी के 24 हजार 406 फॉलोवर दिखने लगे. मोदी जी का दूसरा ‘पोस्ट’ बुद्ध पर था जिसमें कहा गया- ‘बौद्ध धर्म में ऐसी ताकत है, जिसके जरिये तमाम एशियाई देश जुड़ेंगे, और लोग इस सदी को ‘सेंचुरी ऑफ एशिया’ के नाम से जानेंगे.’ प्रधानमंत्री मोदी प्रथम शासन प्रमुख नहीं हैं, जो सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिये चीनी जनता से मुखातिब हो रहे हैं. उनसे पहले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने 29 नवंबर, 2013 को ‘सीना वेईपो’ पर ‘अकाउंट’ खोला था.
भारत-चीन कूटनीति में प्रधानमंत्री मोदी अपनी ‘एंट्री’ धर्म के माध्यम से कर रहे हैं. यह कुछ लीक से हट कर है. ऐसा शायद इसलिए हो रहा है, क्योंकि राष्ट्रपति शी चिनफिंग बौद्ध धर्म को अब चीनी राजनीति के केंद्र में लाना चाहते हैं. शी ने इसकी शुरुआत बहुत पहले से कर दी थी, लेकिन पिछले साल मार्च में यूनेस्को की पेरिस बैठक में शी ने बयान दिया था कि यों बौद्ध धर्म प्राचीन भारत की देन है, लेकिन चीन इसे अपने दर्शन, कला, साहित्य में समाहित करना चाहता है. शी के इस बयान पर चीनी राजनीति में हलचल इसलिए मची कि रूढ़िवादी कम्युनिस्ट अब भी मान कर चल रहे थे कि धर्म इस देश में अफीम की तरह है. लेकिन, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में जिस तरह की कॉरपोरेट संस्कृति घुसी है, और जो नयी पीढ़ी विरासत की राजनीति कर रही है, उसे बौद्ध धर्म रास आ रहा है. शी बौद्ध धर्म से चीनी राजनीति को इसलिए जोड़ रहे हैं, ताकि दलाई लामा के बाद जो भी तिब्बत का चोबदार बने, वह चीन के इशारे पर काम करे. सोच यह भी है कि भारत और अमेरिका, तिब्बत की निर्वासित सरकार के नाम पर जिस तरह से चीन के विरुद्ध काम करते रहे हैं, उसे निस्तेज करना है. यह एक तीर से दो शिकार वाली सोच है, जिसे चीनी राष्ट्रपति शी समृद्ध कर रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, शी की इस व्यूह रचना को कितना समझ रहे हैं, और उसे अभिमन्यु की भांति तोड़ पाते हैं या नहीं, वह उनके चीन यात्र से लौटने के बाद स्पष्ट होगा.
चीनी कूटनीतिकों के लिए धर्म हमेशा सिरदर्दी का सबब रहा है. चीन अतीत में जिस तरह से शिंचियांग से लेकर तिब्बत और ताइवान तक धार्मिक आजादी को कुचलता रहा है, उसे लेकर पश्चिमी देश और दुनिया भर के मानवाधिकारवादी उसकी ‘क्लास’ लेते रहे हैं. लेकिन इस बार चीनी कूटनीति में धर्म को ट्रंप कार्ड के रूप में इस्तेमाल करने के फैसले को देख कर पश्चिमी देश हैरान हैं. जेनेवा स्थित मानवाधिकार काउंसिल में पिछले हफ्ते ही इस बदलाव पर चर्चा हो रही थी. ‘चाइना एकेडमी ऑफ सोशल साइंस’ में एशिया-प्रशांत प्रभाग के निदेशक शू लीफिंग ने एक इमेल के जरिये अपना विचार भेजा कि विकासशील देशों के बीच भरोसे को दोबारा से कायम करने के लिए धर्म ही एक विकल्प दिखता है. शू लीफिंग ने कहा कि कूटनीति में धर्म की भूमिका प्रबल तरीके से होने जा रही है.
चीनी विदेश मंत्रलय पिछले दिनों राष्ट्रपति शी की दक्षिण कोरिया, श्रीलंका और भारत की यात्रओं का हवाला दे रहा है, जिसमें उनके धार्मिक वक्तव्य शामिल हैं. राष्ट्रपति शी पिछले साल जुलाई में जब दक्षिण कोरिया गये, तब उन्हें प्राचीन कोरियन प्रिंस किम ग्यो-काक की याद आयी, जिन्होंने बौद्ध धर्म की जड़ें मजबूत की थीं. श्रीलंका में भी शी ने बौद्ध धर्म को सराहते हुए सिंहलियों का दिल जीतने का प्रयास किया था. ऐसा ही प्रयास म्यांमार में भी चल रहा है. शी जब गुजरात आये, तो उन्हें चीनी बौद्धयात्री शुएन जांग की याद आयी, जिन्होंने थांग शासन के समय मोदी जी के गुजरात का दौरा किया था.
14 से 16 मई के बीच प्रधानमंत्री मोदी जब चीन के दौरे पर होंगे, तब बहस के केंद्र में सीमा विवाद, भारत में मेक इन इंडिया कार्यक्रम पर चीनी योगदान, चीनी सैन्य क्षमता से भारत की तुलना, चीन द्वारा भारत की महासागरीय घेरेबंदी, पाकिस्तान में चीनी सहयोग, और तिब्बत-नेपाल-म्यांमार में नयी रणनीति जैसे विषय होंगे. एक बात तो साफ है कि मोदी ऊर्जा कूटनीति को गंभीरता से ले रहे हैं. लेकिन यह कहना कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी हर विदेश यात्र चीन से प्रतिस्पर्धा लेते हुए कर रहे हैं, थोड़ा ज्यादा हो जाता है. कम-से-कम फ्रांस और जर्मनी की हालिया यात्र, एशिया-प्रशांत कूटनीति (इंडो-पैसेफिक डिप्लोमेसी) से शिफ्ट होकर यूरोप को अपने एजेंडे में शामिल करने के लिहाज से था. एक खास बात यह है कि प्रधानमंत्री बार-बार ‘इंडो-पैसेफिक डिप्लोमेसी’ की ओर लौट कर आ रहे हैं. चीन के बाद उनकी मंगोलिया और दक्षिण कोरिया यात्र को इसी नुक्ते-नजर से देखा जाना चाहिए.
अच्छा हुआ कि शी के भारत आने के नौ महीने बाद प्रधानमंत्री मोदी पेइचिंग पधार रहे हैं. कम-से-कम इसकी समीक्षा तो हो ही सकती है कि 18 सितंबर, 2014 को जितने वायदे ‘एमओयू’ में किये गये थे, उसमें से कितनों पर काम आगे बढ़ा है. चीन को पांच साल के भीतर भारत में 20 अरब डॉलर का निवेश करना है, लेकिन नौ महीने होने जा रहे हैं, अभी उसका मुहूर्त तक नहीं निकला है. 12 समझौतों द्वारा हाइ स्पीड रेल लिंक, स्टेशनों को अत्याधुनिक बनाने, गुजरात और महाराष्ट्र में इंडस्ट्रियल पार्क का निर्माण, इंडियन फार्मास्यूटिकल्स और कृषि उत्पादों को चीनी बाजार में जगह बनाने जैसे संकल्प किये गये थे. अब उसकी हवा निकल रही है. जो भारतीय निर्यात चीनी बाजार में बढ़ना चाहिए था, मार्च 2015 में 1445.69 मिलियन डॉलर और कम हो गया.
मोदी-शी युग की अच्छी शुरुआत यह हुई कि सीमा पर घुसपैठ में कमी आयी है. लेकिन, शी और मोदी के बीच विश्व नेता बनने की प्रतिस्पर्धा बनी रहेगी, यह भारत-चीन कूटनीति का कठोर सच है. बहुत जल्द इस सच से हमें अफगानिस्तान और नेपाल में वाबस्ता होना है!
पुष्परंजन
दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
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