नरेंद्र मोदी, अमित शाह और वंजारा
।।रविभूषण।।(वरिष्ठ साहित्यकार)गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की चमक, दमक, धमक के पीछे गुजरात के पूर्व गृह राज्य मंत्री अमित शाह और गुजरात पुलिस के पूर्व उप–महानिदेशक डीजी वंजारा की मुख्य भूमिका पर अभी व्यापक रूप से विचार नहीं हुआ है. एक सितंबर, 2013 को वंजारा ने गुजरात के अतिरिक्त प्रमुख सचिव (गृह) एसके नंदा को […]
।।रविभूषण।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की चमक, दमक, धमक के पीछे गुजरात के पूर्व गृह राज्य मंत्री अमित शाह और गुजरात पुलिस के पूर्व उप–महानिदेशक डीजी वंजारा की मुख्य भूमिका पर अभी व्यापक रूप से विचार नहीं हुआ है. एक सितंबर, 2013 को वंजारा ने गुजरात के अतिरिक्त प्रमुख सचिव (गृह) एसके नंदा को दस पृष्ठों के अपने इस्तीफे में जो बातें लिखी हैं, उनमें अपनी 33 वर्ष की सेवा का जिक्र करते हुए यह कहा है कि उनके और अन्य पुलिस अधिकारियों की बदौलत ही नरेंद्र मोदी ‘साहसी’ मुख्यमंत्री बने और ‘मुख्यमंत्रियों की आकाशगंगा’ में चमके. वंजारा गुजरात के विकास मॉडल को अपने और अन्य अधिकारियों के बलिदान से जोड़ते हैं.
2002 के गुजरात नरसंहार के बाद 2007 तक गुजरात को दूसरा कश्मीर न बनने देने में उन्होंने अपने और अन्य अधिकारियों के ‘योगदान’ की चर्चा की है. सोहराबुद्दीन मामले में पहली बार 24 अप्रैल 2007 को वंजारा गिरफ्तार हुए थे. कई फर्जी मुठभेड़ों के मामले में वे मुख्य आरोपी हैं. मोदी को भगवान की तरह पूजनेवाले वंजारा अब अपने भगवान के मुंह फेरलेने से क्रुद्ध हैं. ‘पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद’ से लड़ने का श्रेय उन्होंने स्वयं के साथ अन्य पुलिस अधिकारियों को दिया है. गुजरात में हुई ‘फर्जी मुठभेड़ों’ को स्वीकारते हुए भाजपा सरकार को उससे मिले फायदों को वे नहीं भूलते.
वंजारा ने अपने पत्र में गांधी और गुरु गोविंद सिंह को याद किया है. गांधी ने राज्य को ‘निष्प्राण मशीन’ कहा था. उनके अनुसार ‘सरकारों में कोई विवेक नहीं होता.’ वंजारा का पत्र मोदी के खिलाफ तलवार खींचने की तरह है. गुरु गोविंद सिंह ने कहा था कि जब न्याय के सभी दरवाजे बंद हो जायें, तो तलवार खींचना धर्म है. नरेंद्र मोदी ने बार–बार भारत मां का कर्ज चुकाने की बात कही है. इसे याद कर वंजारा ने खेद प्रकट किया है कि मोदी ने अपने अधिकारियों का कर्ज नहीं चुकाया.
वंजारा ने एक साथ मोदी, अमित शाह और गुजरात सरकार को कटघरे में खड़ा किया है. उनके पत्र का कानूनी महत्व भले न हो, पर वह गुजरात सरकार की कार्य पद्धति को सामने रखता है. प्रश्न कानून और नियमों के पालन का है. फर्जी मुठभेड़ें किसी कानून में शामिल नहीं हैं. बाबू बजरंगी और माया कोडनानी ने कानून की धज्जियां उड़ायी थीं. किसी राज्य कर्मचारी–अधिकारी की जवाबदेही निर्धारित नियमों और कानूनों के पालन–अनुपालन में है या मंत्री–मुख्यमंत्री की इच्छा–पूर्ति में? कानून का निर्वाह और उसकी रक्षा महत्वपूर्ण है या मंत्री–मुख्यमंत्री की सनक या जिद? प्रश्न स्वविवेक और दायित्व–बोध का है. वंजारा के अनुसार 2002 से अमित शाह ने पुलिस जैसे प्रमुख एवं ‘संवेदनशील’ महकमे में अव्यवस्था पैदा की.
शाह की ‘गंदी नीतियों’ को वंजारा नहीं भूलते. साबरमती केंद्रीय कारागार का यह कैदी गुजरात सरकार की सही जगह ‘नवी मुंबई स्थित तालोजा केंद्रीय कारागार या अहमदाबाद स्थित साबरमती कारागार’ मानता है. वंजारा की मुख्य शिकायत अमित शाह से है. उनके अनुसार मोदी, शाह के ‘दुष्प्रभाव’ में हैं. अमित शाह को सीबीआइ ने जुलाई 2010 में गिरफ्तार किया था. उन पर गुजरात जाने की रोक भी लगी थी, जो सितंबर 2012 में हटायी गयी. वंजारा के ‘भगवान’ नरेंद्र मोदी अमित शाह के बुरे प्रभाव के कारण उनके साथ खड़े नहीं हुए. शाह के मुकदमे में राम जेठमलानी जैसे वकील खड़े हुए. वंजारा की कोई सुधि नहीं ली गयी. उनका ‘उपयोग’ कर एक प्रकार से फेंक दिया गया. क्या सचमुच अमित शाह ने, जैसा कि वंजारा ने लिखा है, 12 वर्षो से मोदी को ‘गुमराह’ किया है? अमित शाह को मात्र तीन महीने के भीतर नियमित जमानत मिली और वंजारा सहित 32 अधिकारी जिनमें छह आइपीएस हैं, जेल में हैं.
वंजारा एक समय तक मोदी के लिए उपयोगी थे, विश्वसनीय भी. अमित शाह अब भी मोदी के लाडले हैं. आरोपों में घिरे रहने के बाद भी मोदी ने अमित शाह को यूपी भाजपा का प्रभारी बनवाया है. वंजारा का दुख और क्रोध स्वयं उनके अपने कारण है. कानून और व्यक्ति में से उन्होंने व्यक्ति का चयन किया, कानून का नहीं. अधिकारी कानून–नियम का उल्लंघन कर जब सत्ता से जुड़ता है, अपनी मुश्किलों को आमंत्रित करता है.
वफादारी राजनीति में भी अब कम चलती है. 2007 का चुनाव अगर नरेंद्र मोदी वंजारा और अपने अधिकारियों के कारण जीते, तो राजनीति में, सत्ता में, सरकार और व्यवस्था में इसे सदैव याद नहीं रखा जा सकता. प्रश्न भरोसे और विश्वास का है और आज का समय संदेह और शंका का है. वंजारा के लिए कानून भगवान नहीं था. उन्होंने कानून से अधिक मंत्री–मुख्यमंत्री को महत्व दिया. बड़ा सवाल यह है कि कानून की रक्षा कौन करेगा? राजनेता अपने अफसरों के सहयोग से कानून की धज्जियां उड़ाते हैं. राजनीतिक दलों ने विधि आयोग की सलाह की भी अनदेखी की है. सर्वोच्च न्यायालय ने दागी/अपराधी नेताओं पर फैसला लिया था. उसने पुनर्विचार याचिका को भी निरस्त कर दिया, पर सरकार ने सर्वसम्मति से जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करा लिया. ईमानदार, न्यायप्रिय, कानून पसंद अधिकारी कभी सरकार के आगे घुटने नहीं टेकता. वंजारा की सलाह से क्या गुजरात सरकार जेल जा सकती है? ऐसी सलाह का कोई अर्थ नहीं.
वंजारा ने एक बड़ी बात यह कही है कि अफसर जिन नीतियों को लागू करते हैं, उन नीतियों के निर्माताओं को भी गिरफ्तार किया जाना चाहिए. उनका तर्क यह है कि राज्य सरकार की ‘कांशस’ नीतियों का उन्होंने और अन्य अफसरों ने केवल पालन किया है. मौखिक और लिखित निर्देश में अंतर है. लिखने से हाथ कट सकता है, पर बोलने से जीभ नहीं कट सकती. अपने पत्र में वंजारा ने प्रेरित करने, गाइड करने और मॉनिटर करने की बात लिखी है. वंजारा प्रकरण एक उदाहरण है.
वंजारा के पत्र ने मोदी–प्रशासन और राज्य–सरकार के बीच एक गहरी फूट को सामने ला खड़ा किया है. दूसरा सवाल यह भी है कि फर्जी मुठभेड़ों और हत्याओं के बिना क्या मौजूदा कानून से ‘आतंकवाद’ पर काबू नहीं पाया जा सकता? आतंकवाद की आड़ में राज्य का आतंक कायम करना क्या श्रेयस्कर है? फिलहाल वंजारा अलग–थलग हैं और मोदी–शाह साथ हैं. वंजारा के पत्र ने कुछ सच उजागर किये हैं. सच जितना दबाया जायेगा, समय–समय पर वह उतना ही उजागर होता जायेगा. क्या अब मोदी गुजरात के ‘विकास मॉडल’ का और गुजरात में शांति–सुरक्षा का श्रेय जेलों में बंद अधिकारियों को देंगे?