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विज्ञापन देख उठा मासूम सा सवाल

अजीत पांडेय प्रभात खबर, रांची एक दिन घर में टीवी देख रहा था, तभी पकाऊ विज्ञापनों का समय शुरू हो गया. इतने मूर्खतापूर्ण थे ये विज्ञापन कि अब क्या कहें. टीवी पर एक सज्जन अवतरित हुए और लगे बेचने ‘श्री हनुमान चालीसा यंत्र’. वहीं दूसरे चैनल पर एक जनाब बेच रहे थे ‘अल्लाह बरकत लॉकेट’. […]

अजीत पांडेय

प्रभात खबर, रांची

एक दिन घर में टीवी देख रहा था, तभी पकाऊ विज्ञापनों का समय शुरू हो गया. इतने मूर्खतापूर्ण थे ये विज्ञापन कि अब क्या कहें. टीवी पर एक सज्जन अवतरित हुए और लगे बेचने ‘श्री हनुमान चालीसा यंत्र’. वहीं दूसरे चैनल पर एक जनाब बेच रहे थे ‘अल्लाह बरकत लॉकेट’. कह रहे थे कि बस एक बार खरीद भर लीजिए और आपकी सारी समस्याएं छूमंतर हो जायेंगी.

न तो गरीबी सतायेगी और न ही बीमारी पास आयेगी. दोनों के ही विक्रेता यह दावा कर रहे थे कि इस लॉकेट के पहनने से जीवन पर कोई मुसीबत नहीं आयेगी. आपसी विवाद और सालों पुरानी दुश्मनी भी मधुर मित्रता में बदल जायेगी. इनके दावों को सुन कर मेरे मन में बड़ा मासूम सा एक सवाल आया. केंद्र सरकार को इनके दावों को परखना चाहिए.

बड़े पैमाने पर इन यंत्रों और लॉकेटों का उत्पादन करके गरीबों में बांट देना चाहिए (इससे ‘मेक इन इंडिया’ में भी मदद मिलेगी). तमाम धर्मो के धर्मगुरुओं को भी पहना देना चाहिए. इससे जहां जटिल विवादास्पद मुद्दे हल हो जायेंगे, वहीं सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई भी बेमानी हो जायेगी. मैं तो कहूंगा कि लगे हाथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भी इसे पहन लेना चाहिए. सालों पुरानी दुश्मनी भी स्वत: खत्म हो जायेगी. सीमा पर बैठे सैनिकों के मन से भी नफरत निकल जायेगी. बंदूक भी चलायेंगे तो उसमें से आग नहीं, बल्कि फूल बरसेंगे.

नेपाल में, भूकंप पीड़ितों को राहत सामाग्री के साथ यह लॉकेट भी थोक में भेज देना चाहिए. फिर उनके सिर से भी बला का साया हट जायेगा. जब-तब भूकंप ङोलनेवाले जापान के लिए तो यह और भी जरूरी है. सड़कों पर मुंह ढंक कर चलती युवतियां जिन्हें देख कर सुल्ताना डाकू की याद आती है. उनके साथ न तो कभी छेड़छाड़ होगी, न कोई बदसलूकी, क्योंकि शोहदों का मन बदल जायेगा.

खैर छोड़िए, बहुत लानत-मलानत हुई विज्ञापनदाताओं की. अगर इतनी आसानी से अंधविश्वास मिट जाता, तो कितने ही बाबाओं की दुकानदारी ठप हो जायेगी. पुणो के अंधश्रद्धा निमरूलन आंदोलन के प्रणोता रहे डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या नहीं होती.

हम प्रगतिशील और तार्किक होते. उसी के हिसाब से दुनिया को देखते-समझते. लेकिन यह अभी दूर की कौड़ी बनी हुई है. लोग तर्कशील बनें, इसमें मीडिया की बड़ी भूमिका हो सकती है.

मगर टीवी-अखबार ‘मसाला’ बेचने में जुटे हैं. जो मजा कुमार विश्वास पर अवैध संबंध के आरोप का मीडिया ट्रायल कराने में है, वह पाखंड का खंडन करने में कहा. भाई, टीआरपी भी तो कोई चीज होती है! अब वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार के लिए कोई खबरिया चैनल अपने दफ्तर पर ताला थोड़े लगवा लेगा.

नोट: इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाएं आहत करना नहीं है. क्योंकि आहत भावना वालों से बड़ा डर लगता है.

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