चुनावी महोत्सव की ‘फॉमरूला रेस’

।। प्रमोद जोशी ।। (वरिष्ठ पत्रकार) हालिया राजनीतिक घटनाक्रमों से दो–तीन बातें बिल्कुल साफ हैं. राजनीति को चुनाव के पहले ही सारी बातें याद आती हैं. सरकार पहले चार साल सोती है और अंत में जागती है. इसकी वजह जनता के दबाव में कमी रही है, पर अब ऐसा नहीं है. कृषि–प्रधान होने के साथ–साथ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 11, 2013 4:56 AM

।। प्रमोद जोशी ।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

हालिया राजनीतिक घटनाक्रमों से दोतीन बातें बिल्कुल साफ हैं. राजनीति को चुनाव के पहले ही सारी बातें याद आती हैं. सरकार पहले चार साल सोती है और अंत में जागती है. इसकी वजह जनता के दबाव में कमी रही है, पर अब ऐसा नहीं है.

कृषिप्रधान होने के साथसाथ भारत मनोरंजनप्रधान देश भी है. मनोरंजन के मुख्य तीन साधन हैंसिनेमा, क्रिकेट और राजनीति. तीनों को जोड़ता है टेलीविजन, जो सब कुछ है. इन सबके तड़के से तैयार होता है ग्रेट इंडियन रियलिटी शो. कभी सोचा है कि राजनीति वाला सिनेमा में, सिनेमा वाला खेल में और खेल वाला राजनीति में क्यों है? तीनों की अपनी फॉमरूला रेस है, अपना सीजन है.

राजनीति का सीजन रहा है, उसके साथ आनेवाला है उसका अपना कॉमेडी सर्कस. कुछ विधानसभाओं के चुनाव सिर पर हैं. इनके कुछ महीने बाद आम चुनाव होंगे. इस लोकतांत्रिकमहोत्सव के बरक्स देश की अर्थनीति, राजनीति और प्रजानीति पर नजर डालनी चाहिए.

पिछले तीनचार हफ्ते से देश आर्थिक संकट को लेकर बिलबिला रहा था. पिछले हफ्ते रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद संभालने के दिन ही रघुराम राजन ने कुछ घोषणाएं कीं और वित्तीय बाजारों की धारणा बदलने लगी. रुपये की कीमत, जो डॉलर के मुकाबले 68 रुपये के पार थी, 65 के आसपास गयी.

शेयर बाजार में गिरावट रुक गयी. हमारे पास विदेशी मुद्रा भंडार इतना है कि लंबे समय तक कोई परेशानी नहीं होगी. अब कहा जा रहा है कि फंडामेंटल्स मजबूत हैं. अच्छे मॉनसून के कारण खाद्य वस्तुओं के दाम गिरेंगे और मुद्रास्फीति कम होगी. एचडीएफसी बैंक के चेयरमैन दीपक पारेख संजीदा व्यक्ति हैं.

उनका कहना है कि भारत खराब दौर से बाहर गया है. इस साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की विकास दर 4.4 प्रतिशत पर गयी, जो पिछले दशक की सबसे धीमी गति है. इसे बॉटम आउट मानें तो अब इससे बेहतर समय आयेगा.

राजनीतिकआर्थिक और सांस्कृतिक लिहाज से खुशहाली का समय फिर से वापस आनेवाला है! आये या आये, हमें यही साबित करना है.

अगले महीने से धार्मिकसांस्कृतिक महोत्सवों का दौर शुरू होगा, जो नये साल के बाद तक चलेगा. यही समय राजनीतिक फसल की कटाई का है. पेशबंदियां और किलेबंदियां चल रही हैं. इसकी झलक संसद के मॉनसून सत्र में दिखाई पड़ी. बीते 30 अगस्त को खत्म होने वाले सत्र की अवधि सात सितंबर तक बढ़ी, ताकि विधेयक पास हो सकें. सरकार इसे और बढ़ाना चाहती थी, पर सहमति नहीं बनी.

पक्ष और विपक्ष दोनों ने इसे सफल सत्र बताया. संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ बोले कि महीने भर चले सत्र में मौलिक कार्य हुआ है. भारतीय राजनीति का मौलिककार्य सपने दिखाना है और क्या!

बहरहाल इस दौरान आर्थिक सुधारों से जुड़ा महत्वपूर्ण पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण विधेयक पारित हुआ. राजनीतिक मतभेदों के कारण करीब एक दशक से अटका खाद्य सुरक्षा विधेयक पास हुआ. भूमि अधिग्रहण विधेयक, कंपनी कानून, पथ विक्रेता विधेयक, सिर पर मैला ढोने की परंपरा खत्म करनेवाला विधेयक, वक्फ संशोधन विधेयक आदि संसद से पास हो गये.

दोनों सदनों से कुछ और विधेयक भी पास हुए. संसदीय मामलों का अध्ययन करनेवाली संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार पिछले चार साल में यह दूसरा सबसे उत्पादक सत्र था. पिछले साल के इसी सत्र में लोकसभा ने अपने तय समय के 20 फीसदी और राज्यसभा ने 27 फीसदी समय में काम किया. इस बार लोकसभा ने 58 फीसदी और राज्यसभा ने 80 फीसदी समय का इस्तेमाल किया.

पिछले साल पूरा मॉनसून सत्र कोयला खानों को आबंटन के नाम चला गया. इस बार भी आग थी, पर सरकार ने विपक्ष को भड़ास निकालने का मौका दिया तो कटुता भाईचारे में बदल गयी. विपक्ष ने भी एक ही दिन में एक के बाद एक विधेयक पारित करवाने की छूट दे दी.

जिस पेंशन विधेयक को लेकर सरकार परेशान थी, वह भी लोकसभा से आसानी से पारित हो गया. उसके एक दिन पहले प्रधानमंत्री ने एलके आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली को डिनर पर बुलाया. अगले दिन एक के बाद एक चार विधेयकों को हरी झंडी मिल गयी.

हमारी राजनीति और मीडिया तथा एक हद तक वोटर की राजनीतिक प्रक्रियाओं को लेकर अलग समझ है. संसद को हम शोरगुल का मंच समझते हैं. जैसे टीवी को हर वक्त सनसनीखेज खबरें चाहिए, वैसे ही राजनीति को समयसंकट चाहिए. शोर मचाना राजनीतिक कर्म धर्म है. मॉनसून सत्र के दौरान तेलंगाना मसले पर कुछ सांसद अवरोध पैदा करते रहे. उन्हें अपनों को दिखाना था कि वे कुछ कर रहे हैं. स्वतंत्रता आंदोलन से निकली हमारी राजनीति आंदोलन ही खोजती है.

तेलंगाना की उपादेयता या निर्थकता पर सार्थक बहस नहीं होती. उत्तराखंड की आपदा, सीमा पर तनाव या महंगाई पर भी नहीं. मीडिया की दिलचस्पी भी शोर में है, विमर्श पर कम. फिर भी इस बार के संसदीय कर्म ने रेखांकित किया कि सरकार और विपक्ष पर वोटर का दबाव है.

संसद ने कम से कम दो विधेयकों पर जनभावनाओं का आदर किया. राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने के आदेश को निष्प्रभावी करनेवाला विधेयक स्थायी समिति के पास भेज दिया गया. सभी राजनीतिक दल एकमत से इसके पक्ष में थे, पर जनभावना इसके साथ नहीं थी.

दो साल या उससे ज्यादा सजा पानेवाले जनप्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्ति के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटनेवाला विधेयक भी पास नहीं हुआ. पास हुए कंपनी कानून, पेंशन विधेयक और एक हद तक भूमि अधिग्रहण विधेयक आर्थिक गतिविधियों को आगे बढ़ायेंगे. अभी जीएसटी और डायरेक्ट टैक्स कोड जैसे मसले बाकी हैं. लोकपाल, सिटिजन चार्टर और ह्विसिल ब्लोवर विधेयकों के बारे में कोई सोच नहीं रहा.

महिला विधेयक भारतीय राजनीति का हमेशा उपहास उड़ायेगा. आर्थिक संवृद्धि और मानवविकास की बहस अपनी जगह है, पर अर्थव्यवस्था की गाड़ी को धीमा कर काम नहीं हो सकता.

दोतीन बातें साफ हैं. राजनीति को चुनाव के पहले ही सारी बातें याद आती हैं. सरकार पहले चार साल सोती है और अंत में जागती है. इसकी वजह जनता के दबाव में कमी रही है, पर अब ऐसा नहीं है. अन्ना आंदोलन विफल हुआ, पर जनता के सामने सवाल छोड़ गया. जनता जागेगी तभी देश जागेगा.

मुख्यधारा की राजनीति इन सवालों को लेकर सचेत नहीं है, पर नया वोटर इलेक्शन वॉच, एडीआर और पीआरएस की वेबसाइटों पर निगाह रखने लगा है. इस लिहाज से अगला चुनाव रोचक होगा. उसके बाद की राजनीति और ज्यादा मजेदार होगी.

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