अभियोजन में बड़े सुधारों की जरूरत
वर्ष 1958 में ही विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि अभियोजन के वकीलों की नियुक्ति काडर व्यवस्था से की जाए, पर यह सुझाव (एक-दो राज्यों को छोड़ कर) ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है.भारत में सार्वजनिक जीवन का हरेक अंग भ्रष्टाचार की व्याधि से कमोबेश ग्रस्त रहा है. सत्ता के सर्वोच्च शिखर से लेकर […]
वर्ष 1958 में ही विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि अभियोजन के वकीलों की नियुक्ति काडर व्यवस्था से की जाए, पर यह सुझाव (एक-दो राज्यों को छोड़ कर) ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है.भारत में सार्वजनिक जीवन का हरेक अंग भ्रष्टाचार की व्याधि से कमोबेश ग्रस्त रहा है.
सत्ता के सर्वोच्च शिखर से लेकर न्याय-तंत्र, उद्योग जगत, नौकरशाही, सेना, खेल सहित हर क्षेत्र में लालच, लूट, कमीशनखोरी, रिश्वत और भाई-भतीजावाद समय-समय पर नीतियों, निर्णयों व नैतिकता को प्रभावित करते हैं.
आजाद हिंदुस्तान की पहली सरकार के दौरान हुए जीप घोटाले से लेकर पिछली सरकारों के दौरान हुए बड़े और चर्चित घोटालों की लंबी फेहरिस्त है. हालत यह है कि अब अरबों-खरबों के घोटाले भी चकित या उद्वेलित नहीं करते. अधिकारी से लेकर अदना कर्मचारी तक के घरों से करोड़ों रुपये बरामद होने की खबरें बीच-बीच में एक रूटीन खबर की तरह आती रहती है. भ्रष्टाचार का मसला हर चुनाव में उठाया जाता है.
सड़कों पर आंदोलन-प्रदर्शन भी होते हैं. भ्रष्टाचारियों की लूट पर लगाम कसने के लिए देश में कानून भी है और अदालतें भी. जांच और धर-पकड़ के लिए एजेंसियां भी हैं. अकसर मामले अदालतों में भी जाते हैं और उनमें कोई बड़ा नाम होने पर सुर्खियां भी बनती हैं.
बीच-बीच में कुछ राजनेता, नौकरशाह या उद्योगपति पकड़े भी जाते हैं. लेकिन, एक ओर जहां सजा तक मामला पहुंचते-पहुंचते बरसों बीत जाते हैं, वहीं अगर किसी को सजा हो भी जाये, तो ऊपरी अदालत से रिहाई की उम्मीद बनी रहती है. इसे यदि तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता को कर्नाटक हाइकोर्ट द्वारा बरी किये जाने के संदर्भ में देखें तो उनकी रिहाई भले ही न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा हो, जिसमें उन पर लगे आरोप बेबुनियाद साबित हुए, पर यह सवाल तो स्वाभाविक है कि पिछले कई वर्षो से अभियोजन पक्ष उन्हें क्यों दोषी मानता रहा?
अगर अभियोजन पक्ष के पास आरोप लगाने के ठोस आधार नहीं थे, तो उन्हें हुई परेशानी के लिए कौन जिम्मेवार है और अगर ठोस आधार मौजूद थे, तो फिर उन्हें बरी किये जाने के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाने के विकल्प को खारिज क्यों किया जा रहा है?
शेयर घोटालों में आरोपी हर्षद मेहता और केतन पारिख या सत्यम कंप्यूटर्स के रामालिंगा राजू के मामले को छोड़ दें, तो ऐसे मामलों में सजा हो पाना अपवाद ही है.
पहले तो निचली अदालतों में सुनवाई पूरी होने में ही सालों बीत जाते हैं, और अगर निचली अदालत सजा सुना भी दे, तो फैसले और अभियोजन के दस्तावेजों में खामी के आधार पर अकसर ऊपरी अदालतें उन्हें निरस्त कर देती हैं. देश में अभियोजन और न्याय की पूरी व्यवस्था में उभर रहे इस विरोधाभास के कई कारण गिनाये जा सकते हैं- लंबित मामलों के बोझ के चलते अदालतों का कामकाज सुस्त होना, गवाह का बाद में मुकर जाना, अभियोजन का तर्क कमजोर होना, आरोपों की समुचित जांच नहीं हो पाना और भ्रष्टाचार के आरोपी का भ्रष्टाचार के सहारे बच निकलना आदि-आदि.
लेकिन इनमें से किसी कारण से यदि कोई दोषी बच निकलने में कामयाब हो जाता है, या उसे उसके किये की मामूली सजा मिल पाती है, तो यह हमारी व्यवस्था पर कई प्रश्नचिह्न् खड़े करता है. सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर क्यों जांच एजेंसियां आरोपों को समुचित तर्क और सबूत के आधार पर पुख्ता नहीं बना पातीं? देश का आपराधिक न्याय-तंत्र इस सिद्धांत पर काम करता है कि हर अपराध सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपराध है. इसलिए जांच, अभियोजन और दंड की जिम्मेवारी राज्य की है.
जांच एजेंसियां सरकारी होती हैं. राज्य और पीड़ित की ओर से पैरवी करनेवाले वकील सरकार द्वारा नियुक्त होते हैं. हालांकि, सैद्धांतिक रूप से ये सभी स्वायत्त होते हैं और एक निर्दिष्ट नियमावली के तहत काम करते हैं, पर व्यवहार में राज्य से नियंत्रित होते हैं. ऐसे में जांच व न्याय की प्रक्रिया पर राजनीतिक प्रभाव की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता. याद करें, सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था. पुलिस और अन्य जांच एजेंसियों की स्थिति भी अलग नहीं है.
अदालतों में सरकारी वकील भी सरकार द्वारा ही नियुक्त होते हैं. वर्ष 1958 में ही विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि अभियोजन के वकीलों की नियुक्ति काडर व्यवस्था से की जाये, पर यह सुझाव (एक-दो राज्यों को छोड़) ठंडे बस्ते में है. देश में न्याय प्रणाली और जांच की प्रक्रिया में बड़े सुधार की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है.
इस दिशा में कुछ कदम उठाये भी गये हैं, पर लापरवाह रवैये से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई नहीं जीती जा सकती. भ्रष्टाचार के दोषियों के लिए सजा बढ़ाने का प्रस्ताव स्वागतयोग्य है, पर पुलिस और जांच एजेंसियों को अधिक स्वायत्तता तथा अभियोजन पक्ष को अधिक सक्षम बनाने की भी उतनी ही जरूरत है.