भगवाकरण की घातक प्रक्रिया
पवन के वर्मा सांसद एवं पूर्व प्रशासक चर्चित मसलों के नीचे संघ की विचारधारा से जुड़े लोगों को पदों पर चुपचाप भरा जा रहा है. इसका उद्देश्य एक लंबे समय में ऐसे तंत्र की स्थापना है, जो संघ की विचारधारा के अनुकूल हो.भगवाकरण के साथ समस्या यह है कि इसकी दृष्टि बहुत ही संकुचित है […]
पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
चर्चित मसलों के नीचे संघ की विचारधारा से जुड़े लोगों को पदों पर चुपचाप भरा जा रहा है. इसका उद्देश्य एक लंबे समय में ऐसे तंत्र की स्थापना है, जो संघ की विचारधारा के अनुकूल हो.भगवाकरण के साथ समस्या यह है कि इसकी दृष्टि बहुत ही संकुचित है और भारत की विविधता के उत्सव से बिल्कुल अलग है.
जैसे-जैसे संस्थाओं को भगवा रंग में रंगने की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी, यह संकीर्ण विचारधारा क्षमता को दबाती जायेगी तथा संवाद और असहमति की जगह सिकुड़ती जायेगी.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के बाहुल्य के अनुरूप ही भारतीय राजनीति में ऐसे-ऐसे शब्द सामने आते हैं, जो किसी भी भाषा के शब्दकोश में नहीं पाये जाते हैं. ऐसा ही एक शब्द ‘सैफ्रनाइजेशन’ यानी भगवाकरण है.
किसी विदेशी पर्यवेक्षक के लिए इस कामचलाऊ शब्द में समाहित अर्थ-भंडार को समझा पाना बहुत कठिन होगा. लेकिन भारत में इसके समर्थकों और विरोधियों को इसका साफ मतलब पता है.
भगवा भारतीय जनता पार्टी-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा व्यापक संघ परिवार की पहचान का रंग है.
भगवाकरण संघ परिवार की विचारधारा के अनुरूप कुछ विशेष गल्पों और संस्थाओं का सुनियोजित और सायास प्रचार-प्रसार है. इस प्रयास में भगवाकरण के कार्यक्रम की स्पष्ट प्राथमिकताएं हैं. चुनाव और अर्थव्यवस्था से जुड़े राजनीतिक शोर-शराबे से परे संघ के रणनीतिकार चुपचाप तीन महत्वपूर्ण क्षेत्रों का रुख मोड़ने में लगे रहते हैं : संस्कृति और सांस्कृतिक तंत्र; बौद्धिक विमर्श, विशेषकर इतिहास की समझ; और नौकरशाही में, खासकर मध्यम और निचले स्तर पर, अपने लोगों को भरना.
भाजपा के सत्ता में आने के शुरुआती कुछ महीने में चुप्पी बनी हुई थी, जैसा कि तूफान से पहले का ठहराव.
इस वर्ष जनवरी में हमले का निशाना बननेवाला पहला संस्थान सेंसर बोर्ड था. सूचना एवं प्रसारण मंत्रलय द्वारा हस्तक्षेप और दबाव करने तथा उसके द्वारा नियुक्त पैनल के सदस्यों के भ्रष्टाचार की शिकायत करते हुए तत्कालीन अध्यक्ष लीला सैमसन ने इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद नये सदस्यों के साथ फिल्म निर्माता पहलाज निहलानी को अध्यक्ष बनाया गया. कुछ ही दिनों के भीतर बोर्ड द्वारा समर्थित नैतिक पहरेदारी के नये मानदंडों का फिल्म जगत ने विरोध करना शुरू कर दिया. आधुनिक समझदारियों और यथार्थवादी सिनेमाई चित्रण से बिल्कुल अलहदा सोच के तहत नये बोर्ड ने वह नैतिकता थोपने की कोशिश की, जो संघ परिवार की वैचारिकी पर सीधे आधारित थी.
संघ के लंपट समूहों की हरकतों में इस नैतिकता की अभिव्यक्ति देखी जाती है, जो सार्वजनिक जगहों पर प्रेमियों पर हमले करते हैं, जो बताते हैं कि महिलाओं को क्या पहनना चाहिए, जो यह तय करते हैं कि बच्चों को कौन-सा धार्मिक ग्रंथ पढ़ना चाहिए और लोगों को क्या पढ़ना, देखना या खाना चाहिए. आमिर खान, दीपिका पादुकोण, शबाना आजमी और विद्या बालन जैसी अनेक प्रमुख फिल्मी हस्तियों को मजबूरन सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन राठौड़ से अपील करनी पड़ी, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ.
दृश्य कला की सर्वोच्च संस्था ललित कला अकादमी निशाना बननेवाली अगली संस्था थी. इसके लब्धप्रतिष्ठ अध्यक्ष डॉ कल्याण चक्रवर्ती को पद से बर्खास्त कर दिया गया. हार्वर्ड विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट चक्रवर्ती कला प्रशासक के रूप में बहुत अनुभवी हैं. उनके स्थान पर एक ‘अनजान’, पर ‘भरोसेमंद’ नौकरशाह बैठा दिया गया है, जिसे अकादमी के जेनरल कौंसिल, एक्जीक्यूटिव बोर्ड और फाइनेंस कमिटी के सारे अधिकार अगले तीन वर्षो तक के लिए दे दिये गये हैं. इसके बाद राष्ट्रीय संग्रहालय की बारी थी. सुस्त पड़े संग्रहालय में नयी ऊर्जा और क्षमता लानेवाले प्रशासनिक अधिकारी आर वेणु को अचानक स्थानांतरित कर दिया.
वेणु की नियुक्ति पिछली सरकार के दौरान हुई थी. यहां भी संस्कृति मंत्रलय के एक अनुभवहीन अधिकारी को उनकी जगह रखा गया है. इसी तरह प्रतिष्ठित शिल्प संग्रहालय की जगह शिल्प अकादमी स्थापित करने का विचारहीन प्रस्ताव लाया गया है. इन घटनाओं से चिंतित 131 जानेमाने कलाकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों ने एक विरोध-पत्र जारी किया. इनमें गुलजार, रोमिला थापर, अशोक वाजपेयी, कृष्णा सोबती, केदारनाथ सिंह, अदिति मंगलदास, ज्योतिंद्र जैन, ओपी जैन, अतुल एवं अंजू डोडिया, मृणालिनी और मल्लिका साराभाई, संजना कपूर तथा अर्पिता एवं परमजीत सिंह आदि शामिल थे.
इस पत्र में स्पष्ट कहा गया था : ‘अगर ये निर्णय किसी नीतिगत दिशा की ओर संकेत करते हैं, तो यह बहुत चिंताजनक है कि हमारे राष्ट्रीय संस्थाओं की स्वायत्तता, दक्षता और प्रतिष्ठा पर औसत समझ, नौकरशाही मानसिकता तथा संकुचित सांस्कृतिक दृष्टि का हमला हो रहा है.
हम इस रुझान की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं तथा देश के रचनाशील और विचारवान समुदाय से भ्रमित और असंवेदनशील सरकार द्वारा सार्वजनिक सांस्कृतिक जीवन में इस बुद्धिहीन हस्तक्षेप का विरोध करने का आह्वान करते हैं.’
प्राचीन भारत ने सही मायनों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की थीं, जिनका रेखांकन और अध्ययन किया जाना चाहिए. लेकिन संघ के अनेक विचारक मानते हैं कि इतना काफी नहीं है.
उनके विचार में, प्राचीन भारत का इस हद तक गुणगान किया जाना चाहिए कि तार्किक मूल्यांकन और अतिवादी अतिश्योक्ति के बीच के सारे संतुलन ही बिगड़ जायें. पौराणिकता को तथ्य के साथ और कल्पना को विज्ञान के साथ मिलाया जाता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े इतिहासकार हमें यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि प्राचीन काल में भारत के पास ऐसे विमान थे, जो महादेशों की यात्रा करते थे और गणोश की उत्कृष्ट प्लास्टिक सजर्री हुई थी, जबकि कुंती आज के कृत्रिम गर्भाधान प्रक्रिया का पहला उदाहरण थी.
इन ‘उपलब्धियों’ की तुलना में पिछली सहस्त्रब्दी में पनपी गंगा-जमुनी तहजीब एक अवांछनीय पतनशीलता थी. इतिहास की ऐसी समझ प्राचीन भारत की वैध उपलब्धियों को मूल्यहीन बनाती है, और हमारे सभ्यतागत मूल्यों का विकृत और उन्मादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है.
पर, इस सरकार द्वारा वाइएस राव जैसे एक अपरिचित इतिहासकार को पुनर्गठित भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् का अध्यक्ष बनाने जैसे अनेक संकेत हैं कि इतिहास की विकृत और विभाजनकारी समझ को स्थापित करने की कोशिश होगी. रिपोर्टो के अनुसार, वाइएस राव और परिषद् के अन्य नये सदस्य संघ की अखिल भारतीय इतिहास आंदोलन योजना से जुड़े हुए हैं.
नौकरशाही भगवाकरण की एक आसान शिकार है. चर्चित मसलों के नीचे संघ की विचारधारा से जुड़े लोगों को पदों पर चुपचाप और लगातार भरा जा रहा है. मंत्रियों के सहयोगियों की निष्ठा की भी जांच की जा रही है. इसका उद्देश्य एक लंबे समय में ऐसी अफसरशाही के तंत्र की स्थापना है, जो संघ की विचारधारा के अनुकूल हो.
भगवाकरण के साथ समस्या यह है कि इसकी दृष्टि बहुत ही संकुचित है और भारत की विविधता के उत्सव से बिल्कुल अलग-थलग है.
जैसे-जैसे संस्थाओं को भगवा रंग में रंगने की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी, यह संकीर्ण विचारधारा क्षमता को दबाती जायेगी तथा संवाद और असहमति की जगह सिकुड़ती जायेगी. यह प्रक्रिया सुर्खियां बनते राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों से कहीं बहुत अधिक घातक और खतरनाक है.