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हस्तक्षेप की मांग करतीं कड़वी सच्चइयां

।।आनंद कुमार।।(समाजशास्त्री, जेएनयू) निर्भया कांड के बारे में पूरे देश की एक राय होने के साथ ही हमारी न्यायपालिका की तरफ से भी बलात्कार और हत्या के इस क्रूरतम घटनाक्रम के दोषियों के बारे में दो-टूक निष्कर्ष सामने आना सभी सजग लोगों के लिए आत्मनिरीक्षण का एक अवसर प्रदान कर रहा है. इस समय यह […]

।।आनंद कुमार।।
(समाजशास्त्री, जेएनयू)

निर्भया कांड के बारे में पूरे देश की एक राय होने के साथ ही हमारी न्यायपालिका की तरफ से भी बलात्कार और हत्या के इस क्रूरतम घटनाक्रम के दोषियों के बारे में दो-टूक निष्कर्ष सामने आना सभी सजग लोगों के लिए आत्मनिरीक्षण का एक अवसर प्रदान कर रहा है. इस समय यह बहस गैर-जरूरी है कि इन बर्बर और कायर दोषियों को मृत्युदंड दिया जाये या नहीं, क्योंकि यह न्यायाधीश के विवेक से जुड़ी चुनौती है. फिलहाल हमें अपने आसपास, अपने समाज की कुछ कड़वी सच्चाइयों के बारे में एक स्त्री की निगाह से सबकुछ जांचने और बदलने का अवसर है. स्त्री होने के खतरों की एक लंबी सूची सबको मालूम है. यह हमारे सांस्कृतिक इतिहास का सबसे वीभत्स साक्ष्य है. निर्भया की चीत्कार में सीता और द्रौपदी से लेकर रजिया सुल्ताना और रूपकंवर तक के साथ हुए भयंकर व अक्षम्य अपराधों को सबने सुना है. इसमें हर पुरुष के अंदर मौजूद कामुकता और आक्रामक क्रूरता का भी सबको ध्यान जरूर आयेगा.

स्त्रियों के प्रति पुरुषों में पायी जानेवाली बर्बरता का मूल दूसरे मनुष्यों के प्रति हिंसा की भावना है. यह स्त्रियों के प्रसंग में हर मोड़ पर, हर दिन जाने-अनजाने प्रकट होती रहती है. जाति, संप्रदाय, वर्ग और क्षेत्र के चार संसारों में बंटी हमारी सामाजिक सच्चाई के कारण हम इसे दूर की दुर्घटना के रूप में मानने की भूल करते हैं, लेकिन जब किसी पुरुष द्वारा हमसे संबंधित किसी स्त्री के साथ यह शर्मनाक हादसा होता है तो हम अपनी असहायता से घिर जाते हैं. चारों तरफ अंधेरा सा महसूस होता है. क्या करें और क्या न करें के बारे में हम हतप्रभ हो जाते हैं, क्योंकि पड़ोसी से लेकर पुलिस व अदालत तक, पुरुषों द्वारा स्त्रियों के अपमान को कोई खतरे की घंटी के रूप में नहीं सुनता. चुप रहने और बात को आगे न बढ़ाने की सलाह मिलती है, क्योंकि इन हरकतों को स्त्री की छवि, परिवार की प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा से गलत तरीके से जोड़ कर देखा जाता है. इसलिए हम हिंसा के दोषी के बारे में जरूरी सक्रियता, निडरता और दंड के पहलू को गैरजरूरी मानने की भूल करते हैं. यह भी सलाह दी जाती है कि जो हो गया सो हो गया, अब आगे की संभालो.

स्त्री की अवमानना और मान-मर्दन कोई क्षणिक प्रसंग नहीं होता. इससे वह शेष जिंदगी अवसाद, अपमान व आतंक की स्याह परछाइयों में जीने को अभिशप्त रहती है. निर्णायक निदान के बिना अर्थात् बर्बरता के दोषी को कठोर दंड के सिवा बलात्कार जैसे घावों के ऊपर कोई और मरहम काम नहीं करता. अगर हम ध्यान से देखें तो पड़ोसी लफंगों की छेड़छाड़, विवाह के बहाने दहेज लोभियों का अत्याचार, बच्चियों से लेकर वयस्क स्त्रियों तक का देश और दुनिया में फैला व्यापार, अपनों और परायों द्वारा मौका मिलते ही बलात्कार और कभी-कभी अपने बहशी इरादों में नाकाम होने पर हत्या तक का एक चक्रव्यूह स्त्री होने के दुख का खुला और वीभत्स सच है. स्त्री परिवार से लेकर ससुराल तक अपनों की हिंसा का शिकार होने के भय में जी रही है. गांव और शहरों में इस भय के अलग-अलग नाम व रूप हैं. विद्यालय से लेकर चिकित्सालय तक, हर कहीं कुछ अपमानजनक होने की आशंका रहती है. रोजगार की जगह से लेकर बाजार की दुनिया तक हर जगह स्त्री पुरुषों की दृष्टि और आचरण में र्दुव्‍यवहार की दरुगध से प्रताड़ित होती है. आज इस हिंसक परिवेश के खिलाफ आक्रोश और विद्रोह की भावना फैलाव पर है. आधुनिकता के स्याह पक्ष के रूप में अश्लीलता, पोर्नोग्राफी और स्त्रियों को दोयम दज्रे का बनाये रखनेवाला समूचा तंत्र हमें असहाय बनाये हुए है. इसमें बदलाव के लिए हम अपने अंदर और बाहर, दोनों स्तर पर चल रही आत्मालोचना को बढ़ावा दें, अन्यथा सिर्फ सामने आये मामलों में पुलिस और न्यायपालिका के भरोसे इस अमानवीयता को निमरूल करने की आशा करना आत्मप्रवंचना होगी.

माननीय न्यायाधीश का निर्णय तो सिर्फ चार आरोपियों का भविष्य तय करने जा रहा है. हमारे समूचे सामाजिक ताने-बाने में निहित स्त्री के खिलाफ बर्बरता के निमरूलन के लिए हमें न्यायमूर्ति जेएस वर्मा की रिपोर्ट और सुझावों को केंद्र में रखना होगा. नर-नारी समता को आदर्श बनाये बिना और अर्धनारीश्वर अवतार की आराधना किये बिना हम बारंबार निर्भया जैसे निर्दोषों की मौत के साक्षी बनते रहने के अभिशप्त होंगे.

एक सांस्कृतिक क्रांति की आधारभूमि तैयार हो चुकी है. बिना इसके सिर्फ शिक्षा प्रसार, मीडिया सरोकार, पुलिस और न्यायालय की मुस्तैदी से हमारा समाज स्त्री होने के खतरों से मुक्ति नहीं पा सकेगा. अगर स्त्री यानी आधा समाज खतरे में जीने को अभिशप्त है और बाकी यानी पुरुष वर्ग खतरनाक बने रहने को मुस्तैद है, तो फिर हम सभ्य कहां हैं? हमारे लिए यह सामूहिक आत्मरक्षा का प्रश्न है, क्योंकि समाज का समूचा ताना-बाना स्त्री और पुरुष के सहयोग और संयोग से शुरू होता है.

आज अगर स्त्रियों का जीवन घर और बाहर निर्बल माने जाने के कारण खतरे से भरता जा रहा है, तो स्त्रियों का बहुआयामी सबलीकरण ही पहला कदम होगा. शिक्षा और आजीविका के अधिकार से लेकर संपत्ति में साङोदारी और समाज में सम्मानजनक हिस्सेदारी इस दिशा में दूसरी जरूरत है. आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी यदि भारतीय पुरुष और सत्ता प्रतिष्ठान जाति, वर्ग, धर्म और संस्कृति की आड़ लेकर इन दोनों उपायों के लिए हीला-हवाली कर रहे हैं, तो कुछ नये आंदोलनों की जरूरत है. एक तरफ पुरुष प्रधान मानसिकता, दूसरी तरफ भोगवादी पूंजीवाद और तीसरी तरफ दबंग जातियों का प्रजातंत्र स्त्री को समता और सम्मान देने के लिए किसी भी तरह की गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहता. पंचायती राज में स्त्रियों को मिले आरक्षण की सीमाओं को देखते हुए स्त्री के पक्ष में एक असरदार व्यूह रचना की जरूरत स्वीकारनी चाहिए, अन्यथा निर्भया के मामले में कठोरतम दंड एक रस्मी कवायद जैसी घटना बन कर जल्दी ही भुला दी जायेगी.

भ्रूण हत्या से लेकर शादी के बहाने स्त्रियों की खरीद-फरोख्त तक का वीभत्स सामाजिक सच हमसे तत्काल हस्तक्षेप की मांग कर रहा है. एक निदरेष के सामूहिक बलात्कार और हत्या के दोषियों को सजा देने में हमने जनदबाव की क्रांति के बाद भी यदि नौ महीने लगा दिये, तो गांव कस्बे से लेकर महानगरों तक फैली बर्बरता और हिंसा के दोषी हजारों लोगों तक हमारी न्याय व्यवस्था की नजर कब पड़ेगी, यह सोच कर हर किसी को तत्काल सामूहिक सक्रियता के लिए संकल्प लेना चाहिए.

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