भारत और चीन में हो रहे बदलाव

अविनाश पांडेय समर कार्यक्रम समन्वयक, एशियन ह्यूमन राइट कमीशन, हांगकांग लेकिन एक बात में चीन से भारत बेशक बहुत आगे भी है और सुरक्षित भी है. वह यह कि भारत में लोकतंत्र की बहुत गहरी जड़ें उसे ऐसे किसी तूफान से बचाये रखेंगी, जो चीन को कभी भी तबाह कर सकता है.कूटनीतिक संबंधों में ज्यादा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 15, 2015 5:34 AM

अविनाश पांडेय समर

कार्यक्रम समन्वयक, एशियन ह्यूमन राइट कमीशन, हांगकांग

लेकिन एक बात में चीन से भारत बेशक बहुत आगे भी है और सुरक्षित भी है. वह यह कि भारत में लोकतंत्र की बहुत गहरी जड़ें उसे ऐसे किसी तूफान से बचाये रखेंगी, जो चीन को कभी भी तबाह कर सकता है.कूटनीतिक संबंधों में ज्यादा मिठास सिर्फ दो वजहों से दिखती है.

पहली यह कि दोनों देश बहुत करीबी ही नहीं, एक-दूसरे पर निर्भर भी हों, फिर भले ही एक की निर्भरता आर्थिक हो और दूसरे की राजनीतिक. मिठास का दूसरा कारण सिर्फ और सिर्फ गहरा अविश्वास और युद्ध से लेकर तनाव तक का इतिहास ही होता है.

प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा के पहले दोनों तरफ से दिखायी गयी ऊष्मा बेशक पहली नहीं, बल्कि दूसरी ही वजह से है. वजह दूसरी हो तो ऊष्मा ज्यादा दिखानी भी पड़ती है. ठीक वैसे ही, जैसे चीनी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के बीच चीनी सैनिकों के भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण का जवाब नदी किनारे झूला झूलने की प्रतीकात्मकता से ही दिया जा सकता है.

इन तनावों का स्नेत न सिर्फ सीमा विवाद या चीन के पाकिस्तान को समर्थन में है, न ही प्रधानमंत्री मोदी के विवादित व्यक्तित्व में. इसके ठीक उलट याद करिये तो प्रधानमंत्री नेहरू के दौर में दोस्ताना संबंधों के बीच सीधे युद्ध के बरक्स गुजरात को लेकर लगभग वैश्विक वीजा बहिष्कार के दौर में चीन मोदी का स्वागत करनेवाले पहले देशों में से था और अमेरिका द्वारा 2005 में मोदी को वीजा न दिये जाने के बाद मोदी की पहली पांच दिवसीय विदेश यात्रा चीन की ही थी.

सीमा विवाद से लेकर एशिया से लेकर विश्व स्तर तक प्रभुत्व की लड़ाई में खोजे जा सकनेवाले तनाव के इन स्नेतों में एक महत्वपूर्ण हिस्सा अकसर छूट जाता है- वह है वैश्विक उत्पादन और सेवाओं, दोनों का केंद्र बनने की वह लड़ाई, जिस पर इन दोनों देशों का अपना विकास और भविष्य टिका हुआ है.

भारत में कपड़ा उद्योग से लेकर जूट तक के बंद होते कारखानों के बीच चीन उत्पादन का केंद्र बन कर उभरा था, तो वहीं सेवाओं की ‘आउटसोर्सिग’ का हिस्सा भारत के हाथ आया था.

इसके कारण साफ थे. एक तरफ चीन में सर्वाधिकारसंपन्न कम्युनिस्ट पार्टी के शासन, देश भर में एक ही सांगठनिक और आधारभूत ढांचा, लगभग एक संस्कृति और तेज समाजार्थिक सुधारों (चीन की लगभग आबादी शिक्षित व स्वास्थ्य सुविधाओं से सुरक्षित है) ने सस्ता श्रम उपलब्ध कराने में बड़ी भूमिका निभायी थी. दूसरी तरफ कंफ्यूशियन सिद्धांतों में छुआछूत रहित सामाजिक श्रेणीबद्धता के पालन व वफादारी पर जोर ने इस श्रम के सत्ता से टकराव की संभावना कम की थी.

आज भी चीनी दफ्तरों में उच्च अधिकारियों का सम्मान, उनसे गरिमामयी दूरी, असहमति के बावजूद आदेशों के पालन के साथ नियमानुसार पूरे समय काम करना आदि व्यवहार का मूलमंत्र माने जाते हैं.

आर्थिक दृष्टि से इस शानदार आधार में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का गांवों तक पसरा संजाल, 70 के दशक के बाद पार्टी की कड़ी निगहबानी में अर्थव्यवस्था का खुलना और श्रम कानूनों को बिल्कुल शिथिल कर विशेष औद्योगिक क्षेत्रों के निर्माण के साथ चीन के गांवों से शहरों को हुआ प्रवास जोड़िये और चीन की आर्थिक प्रगति की कहानी सामने है.

इस कहानी में दो पेंच थे. पहला, चीन में लगभग तानाशाही वाली शासन पद्धति से पैदा होनेवाला भ्रष्टाचार और दूसरा, अंगरेजी भाषा की लगभग अनुपस्थिति. इन दोनों के साथ एक बच्चे के नियम के कठोर अनुपालन से बूढ़ी हो रही उम्र जुड़ने से चीन के वैश्विक उत्पादन पर प्रभुत्व को चुनौती मिलनी लाजमी थी, पर उसके पहले ही चीन ने खुद को सुधारना शुरू कर दिया.

बीते दशक में दसियों हजार अमेरिकी और ब्रिटिश युवा अंगरेजी पढ़ाने चीन पहुंचे हैं. चीन में अंगरेजी की बढ़ती पैठ भारत के बीपीओ सेक्टर के लिए बहुत कड़ी चुनौती खड़ी करनेवाला है.

दूसरी तरफ भ्रष्टाचारी शीर्ष नेतृत्व तक पर चीनी सरकार की कड़ी कार्रवाइयों की खबर हम तक पहुंच ही रही है. वरिष्ठ राजनेता बो शिलाई से लेकर चीनी सेना के पूर्व उपप्रमुख तक की बर्खास्तगी और सजा के बरक्स भारत को देखें, तो इस दिशा में भी संकेत बिल्कुल साफ है.

चीन-भारत के बीच आर्थिक प्रतिद्वंद्विता ही नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक संस्कृति का भी संघर्ष है.

भ्रष्टाचार को लगभग भाग्यवादी ढंग से स्वीकार कर चुके भारतीय मानस, अनुमानित से कई गुना ज्यादा समय में पूरी होनेवाली परियोजनाएं, महानगरों से बाहर निकलते ही सड़क और बिजली तक गायब हो जानेवाले आधारभूत ढांचे को तो छोड़ ही दें; मानव विकास सूचकांकों पर लगातार बेहतर हो रही चीनी आबादी के सामने 42 प्रतिशत से ज्यादा कुपोषित बच्चों वाले भारत में किसी किस्म की प्रतिद्वंद्विता का परिणाम एक ही दिशा में जाता हुआ दिखता है.

हां, एक बात में भारत बेशक बहुत आगे भी है और सुरक्षित भी. यह कि लोकतंत्र की बहुत गहरी जड़ें उसे ऐसे किसी तूफान से बचाये रखेंगी, जो चीन को कभी भी तबाह कर सकता है.

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