कुछ ठोस करने का वक्त

अनुज कुमार सिन्हा यह सही है कि झारखंड में बेचैनी है. लोगों में बेचैनी है. सरकार में भी बेचैनी दिखती है. यह बेचैनी है कुछ करने की. पड़ोसी राज्यों को देखते हैं तो यह बेचैनी और बढ़ जाती है. वे कहां और हम अभी तक कहां. लेकिन उम्मीद की किरण भी दिखती है. इसलिए, क्योंकि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 15, 2015 5:50 AM
अनुज कुमार सिन्हा
यह सही है कि झारखंड में बेचैनी है. लोगों में बेचैनी है. सरकार में भी बेचैनी दिखती है. यह बेचैनी है कुछ करने की. पड़ोसी राज्यों को देखते हैं तो यह बेचैनी और बढ़ जाती है. वे कहां और हम अभी तक कहां. लेकिन उम्मीद की किरण भी दिखती है. इसलिए, क्योंकि राज्य में पहली बार पूर्ण बहुमत (किसी एक दल की) की सरकार बनी है. कमान रघुवर दास के हाथों में है.
जेपी आंदोलन की उपज हैं, इसलिए आंदोलन और संघर्ष से उनका पुराना रिश्ता रहा है. उम्मीदें और भी हैं. खास कर, उन लोगों को, उस परिवार को, जिसका संबंध आंदोलन, शहादत से रहा है. जब शहादत की बात आती है तो इसमें आजादी के पहले से लेकर झारखंड आंदोलन और सीमा पर दुश्मनों के साथ लोहा लेते हुए शहीद होनेवाले सभी आ जाते हैं.
झारखंड वीरों की धरती रही है. बाबा तिलका माझी से लेकर सिद्धू-कान्हू, बिरसा मुंडा, पांडेय गणपत राय, नीलांबर-पीतांबर, शेख भिखारी, तेलंगा खड़िया, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, टिकैत उमरांव सिंह, जतरा भगत, बुधु भगत समेत अनेक वीरों ने अंगरेजों के खिलाफ लड़ते हुए शहादत दी थी.
झारखंड के अलग-अलग इलाकों में इनकी प्रतिमाएं-स्मारक हैं. इन्हें हम याद करते हैं. सीमा पर (खास कर पाकिस्तान के साथ) दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद होनेवाले वीर सैनिकों में झारखंड के अनेक शहीद रहे हैं. इनमें लांस नायक अल्बर्ट एक्का समेत अनेक सैनिक-अफसर शामिल हैं. इनमें से कई शहीदों की प्रतिमाएं भिन्न-भिन्न इलाकों में लगी हैं. इसी प्रकार झारखंड राज्य के लिए लंबे चले आंदोलन में हजारों आंदोलनकारियों ने जान दी. किसी का हाथ कटा, किसी का पैर. पढ़ाई छोड़ कर अनेक छात्र आंदोलन में शामिल हो गये. पूरा जीवन आंदोलन को दे दिया, अलग झारखंड की खातिर.
राज्य जब बन गया (अब तो 14 साल बीत गये), तो ये भुला दिये गये. किसी को इनकी चिंता नहीं रही. कहां गया इनका हिस्सा? जिनकी शहादत के बल पर राज्य बना, उनमें से कई के परिजन आज भी अभाव का जीवन जी रहे हैं. यह सही है कि आंदोलनकारियों का एक छोटा तबका राजनीति में आ गया, पैसा भी कमाया और महत्वपूर्ण पदों पर रहे लेकिन बाकी आंदोलनकारियों को न तो पैसा मिला, न सम्मान या न ही नौकरी में कोई प्राथमिकता. इन आंदोलनकारियों के अलावा सभी शहीदों के स्मरण के लिए कुछ होना चाहिए.
यह सही वक्त है. झारखंड को एक ऐसी जगह चाहिए जहां बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हू (अंगरेजों से लड़नेवाले) से लेकर अल्बर्ट एक्का, नागेश्वर महतो, कर्नल संकल्प (देश के लिए शहादत) अ़ौर निर्मल महतो, गंगाराम कालुंडिया (झारखंड आंदोलनकारी) जैसे शहीदों की प्रतिमाएं भी एक साथ दिखे, साथ में तमाम शहीदों के नाम शिलापट्ट पर लिखे मिले. आसपास झारखंड की संस्कृति से जुड़ी दुर्लभ चीजें भी हों.
कुछ साल पहले आंदोलनकारियों की पहचान के लिए झारखंड-वनांचल चिह्न्तिकरण आयोग बना. जस्टिस विक्रमादित्य इसके चेयरमैन बनाये गये. कम समय में बहुत काम हुआ. आयोग के पास सुविधा है नहीं, मैनपावर है नहीं. लंबे समय तक सदस्य नहीं रहे. जो थे भी, वे आते कम थे. भला हो मुमताज जैसे जुनूनी आंदोलनकारियों का, जो आज भी न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं. प्रयास दिखा भी है. आयोग के पास 38,660 आवेदन आये जिनमें से सिर्फ 3841 को आंदोलनकारी के रूप में चिह्न्ति किया जा सका है.
लगभग 34 हजार आवेदन पड़े हैं.
कई जिलों में सहयोग नहीं मिला. अधिकांश नोडल पदाधिकारी इसे बोझ मानते हैं. बार-बार आग्रह होता रहा, चिह्न्ति करने का काम नहीं किया. पुलिस अफसरों ने सहयोग नहीं किया. दस्तावेज नहीं दिये. आंदोलनकारी भटकते रहे लेकिन सहयोग नहीं मिला. खूंटी-सिमडेगा आंदोलन का केंद्र था लेकिन वहां से एक भी आंदोलनकारी की पहचान नहीं हो पायी.
क्या कर रहे हैं इन जिलों के अफसर, कौन है जिम्मेवार? जब आयोग बनाया है तो काम पूरा करने में सहयोग तो करना होगा. अफसरों की लापरवाही का खामियाजा आंदोलनकारी भुगत रहे हैं. इलाज के अभाव में कई की तो मौत भी हो चुकी है. अब तो आयोग का कार्यकाल भी 31 मई को खत्म होने जा रहा है. किसी हाल में पहचान का काम 31 मई तक पूरा नहीं हो सकता. अगर आयोग का कार्यकाल नहीं बढ़ाया गया तो यह काम अधूरा रह जायेगा और आंदोलनकारियों के साथ न्याय नहीं हो पायेगा.
सीमित समय में सारे कम करने होंगे. यह कड़वा सच है कि पहले की किसी सरकार ने इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया. राज्य बने 14 साल हो गये. इस दौरान आंदोलन का प्रमुख संगठन झामुमो भी सत्ता में रहा. खुद गुरुजी सत्ता में रहे.
कई आंदोलनकारी मंत्री के पदों पर रहे. फिर भी आंदोलनकारियों या शहीदोंे के परिजनों को कुछ नहीं मिला. सिर्फ हेमंत सोरेन के कार्यकाल में गुवा गोलीकांड के शहीदों के परिजनों को नौकरी मिली. (इस बार रघुवर दास ने खरसावां के शहीदों के लिए भी घोषणा की थी).
अब तो झारखंड के अधिकांश आंदोलनकारी बूढ़े हो गये हैं. 1988-89 के आंदोलन में जो आंदोलनकारी 20-22 साल के भी थे, वे अब लगभग 50 साल के हो चुके हैं. नौकरी कैसे मिलेगी. लेकिन सम्मान तो मिल सकता है. इलाज संबंधी सुविधा तो मिल सकती है. सुदेश महतो जब गृह मंत्री थे तो लिस्ट बन रहा था, फिर शहीद पार्क की भी बात की थी लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी.
अब वक्त है कुछ करने का. सिर्फ झारखंड के आंदोलनकारियों-शहीदों के लिए नहीं बल्कि सीमा पर शहीदों के लिए भी. एक निर्णय रघुवर दास को इतिहास का हिस्सा बना सकता है. पूरे राज्य में कहीं भी ऐसा शहीद पार्क नहीं है जहां आजादी की लड़ाई से लेकर झारखंड आंदोलन और सीमा पर हुए शहीदों की याद में स्मारक-प्रतिमाएं हों.
अगर राज्य सरकार 100-200 एकड़ जमीन पर इस प्रकार का ऐतिहासिक पार्क बना पाये, जहां सभी प्रमुख शहीदों की एक जगह प्रतिमाएं, अन्य शहीदों के नाम लिखे हों, वहां अन्य सुविधाएं हों तो यह झारखंड का ऐतिहासिक स्थल बन सकता है. पर्यटन के दृष्टिकोण से भी.
स्मारक-पार्क ऐसा हो कि बाहर से लोग यहां देखने आ सकें. संभव हो कि ऐसे पार्क के लिए जमीन देने के लिए ग्रामीण खुद आगे आ जायें. पूरे राज्य के लोगों से इसमें आर्थिक सहयोग (यह सिर्फ सहयोग नहीं होगा बल्कि उनकी भावनाएं जुड़ी होंगी) मांगा जाये. विपक्ष का भी इसमें साथ मिलेगा.यह निर्णय तो सरकार को करना है.
जो काम पहले नहीं हुआ, जिन आंदोलनकारियों को सम्मान नहीं मिला, शहीदों के परिजनों को कुछ नहीं मिला, अगर रघुवर सरकार हिम्मत कर कुछ कर पाती है, तो उन्हें न सिर्फ लोग याद रखेंगे बल्कि राजनीतिक तौर पर भी इसका लाभ मिलेगा.
निर्णय सरकार को करना है कि झारखंड आंदोलन के लिए बने आयोग की अनुशंसा पर काम आगे बढ़ायें, शहीद पार्क-स्मारक बना कर सभी शहीदों को याद करें, पर्यटन का नया रास्ता खोलें, देश-राज्य को संदेश दें या फिर पहले की सरकार की तरह चुप बैठ जाये.

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