‘रेप कैपिटल’ की कालिख और भारत

।।पुष्परंजन।।(नयी दिल्ली संपादक,इयू-एशिया न्यूज)दिल्ली गैंग रेप के दोषियों को सजा देने पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी रही हैं. प्रश्न यह भी है कि अपने देश की न्यायपालिका कहीं किसी अंतरराष्ट्रीय दबाव में तो नहीं है? फैसले का समय खिसकने के बाद यह सवाल कूटनीतिक गलियारों में चरचा का विषय बना है. पांच माह पहले, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 13, 2013 2:06 AM

।।पुष्परंजन।।
(नयी दिल्ली संपादक,इयू-एशिया न्यूज)
दिल्ली गैंग रेप के दोषियों को सजा देने पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी रही हैं. प्रश्न यह भी है कि अपने देश की न्यायपालिका कहीं किसी अंतरराष्ट्रीय दबाव में तो नहीं है? फैसले का समय खिसकने के बाद यह सवाल कूटनीतिक गलियारों में चरचा का विषय बना है. पांच माह पहले, 23 मई, 2013 को यूरोपीय संसद ने एक आपात प्रस्ताव पास किया कि चाहे कितना भी जघन्य अपराध हो, भारत फांसी की सजा न दे. एक बार फिर यूरोपीय संघ में भारत के खिलाफ प्रस्ताव लाने की तैयारी चल रही है. हालांकि दुनिया इस मामले में बंटी हुई है.

अमेरिका, मध्य-पूर्व और चीन की बड़ी आबादी का मानना है कि बलात्कार और हत्या के अपराधियों को निश्चित रूप से फांसी पर लटका देना चाहिए. इसके उलट, यूरोप समेत दुनिया के अधिकतर देश दिल्ली के बलात्कारी दरिंदों को किसी भी सूरत में फांसी देने के पक्ष में नहीं रहे हैं. इन देशों में चल रही बहस, ट्वीट और ब्लॉगबाजी पर गौर करें तो लगेगा कि भारत के बारे में एक किस्म का फोबिया विकसित हो रहा है. खास कर इस तरह की चेतावनी कि विदेशी महिला पर्यटक भारत पधारें भी, तो सतर्क रहते हुए घूमें. हैवानियत की सारे हदें पार कर देनेवाली दिल्ली की घटना ने भारत के चेहरे को खौफनाक बनाया है, और दिल्ली को पूरे विश्व का ‘रेप कैपिटल’!

लेकिन ऐसा क्यों है कि सभ्य कहे जानेवाले पश्चिमी देश अपने यहां होनेवाली बलात्कार की घटनाओं पर परदा डाल देते हैं? किसी श्वेत विदेशी पर्यटक के साथ भारत में जबरदस्ती हो जाती है, तो पश्चिमी मीडिया मानो पागल सा हो जाता है. इसके दबाव में सरकार सक्रिय हो जाती है. तब भारत में पुलिस-प्रशासन और अदालतों की सक्रियता भी देखने लायक होती है. इसी साल 15 मार्च को दतिया में 39 साल की एक स्विस युवती की अस्मत लूटनेवाले प्रकरण पर जरा गौर कीजिए. 15 मार्च को उस स्विस महिला के साथ दुराचार हुआ, 26 मार्च तक मध्यप्रदेश पुलिस पांच अभियुक्तों के खिलाफ चार्जशीट पेश कर चुकी थी. फास्ट ट्रैक अदालत ने 30 मार्च से सुनवाई आरंभ कर दी. 25 मई को पीड़िता की गवाही पटियाला हाउस कोर्ट के एक स्पेशल कमीशन ने, दिल्ली स्थित स्विस दूतावास से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये दर्ज की. 20 जुलाई को दतिया कोर्ट ने बलात्कार के पांचों दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी.

इस घटना के पांच दोषियों को सजा देने में कुल जमा चार महीने पांच दिन लगे. ऐसी ही फुर्ती 2005 में एक जर्मन युवती से जोधपुर में रेप होने के बाद पुलिस और अदालत ने दिखायी थी. उस समय अंगरेजी दैनिक ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ की टिप्पणी थी, ‘जोधपुर रेप केस जजमेंट विल सेंड द राइट मैसेज’, अर्थात् ‘जोधपुर बलात्कार कांड पर फैसला सही संदेश देगा.’ किनके लिए यह संदेश? क्या उन रंगभेदी मानसिकता वाले दबंग देश के लोगों के लिए, जो अपने नागरिकों को विशेष दर्जा दिये जाने की अपेक्षा भारत से करते हैं? गुलाम मानसिकता वाली हमारी लाल फीताशाही भी गजब की है, जो विदेश से डॉलर-यूरो भेजनेवालों को बताना चाहती है कि आप हमारे लिए खास हो, यहां के काले लोग तो फालतू हैं! क्या विदेश में किसी भारतीय महिला के साथ बलात्कार या यौन उत्पीड़न होने की स्थिति में वहां की पुलिस और अदालत वैसा ही व्यवहार करती है? निश्चित रूप से नहीं.

सात साल यूरोप में रहने और उस दौरान उत्तर अमेरिका लगातार जाने के दौरान मेरा निजी अनुभव यही रहा है कि वहां पुलिस और अदालतें अपने देश के कानून के अनुरूप ही कार्य करती हैं और वहीं के हिसाब से केस के निपटारे में समय लेती हैं. चाहे वह किसी भारतीय महिला से जुड़ा केस ही क्यों न हो. दतिया दुष्कर्म की शिकार स्विस युवती की दिल्ली स्थित उसके दूतावास से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये जिस तरह से गवाही हुई, क्या वैसी सुविधा अपने देश की किसी पीड़िता को कभी दी गयी? क्या कभी किसी ने यह पूछने की हिमाकत की कि 16 दिसंबर के दरिंदों को पकड़ने और फास्ट ट्रैक अदालत द्वारा सजा देने में नौ महीने क्यों लगे? वह भी तब, जब पूरा देश दोषियों को जल्द से जल्द सजा दिलाने के लिए सड़क पर उतरा हुआ था. संभवत: भारतीय मीडिया के इतिहास में टीवी पर सबसे ज्यादा समय इस विषय पर केंद्रित बहस के लिए दिया गया. अखबार, ट्विटर, ब्लॉग उतने ही संवेदनशील रहे हैं. लेकिन हमारी प्रशासनिक-न्यायिक व्यवस्था अपनी रफ्तार से चलती रही. इस हिसाब से ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ को भी दो श्रेणियों में बांटा जाना चाहिए. एक गोरे विदेशियों के लिए ‘सुपर फास्ट ट्रैक कोर्ट’ और दूसरा देसी काले लोगों के लिए ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’!

लगता है जैसे यहां की कानून-व्यवस्था ‘बिजनेस क्लास’ और ‘इकोनॉमी क्लास’ के विमान पर सवार हो. यहां विशेष दर्जे में बने रहने का ‘एरोगेंस लेवल’ (अहंकार) बढ़ता गया है. पश्चिम का तथाकथित सभ्य समाज किसी काले-भूरे देश को बुरा घोषित करने में तनिक भी देर नहीं लगाता. दक्षिण अफ्रीका में 1997 में रेप के 52,160 केस दर्ज हुए. यह वहां हुए अपराध का 2.8 प्रतिशत था. लेकिन लगे हाथ पश्चिमी देशों ने दक्षिण अफ्रीका को दुनिया का ‘रेप कैपिटल’ घोषित कर दिया. उधर, अमेरिका में हर रोज बलात्कार के औसतन 232 मामले दर्ज होते हैं.

2005 में अमेरिका में बलात्कार के 90 हजार मामले दर्ज किये गये थे. ‘यूएस ब्यूरो ऑफ जस्टिस’ के आंकड़े बताते हैं कि वहां बलात्कार की घटनाएं तीन लाख प्रतिवर्ष पर पहुंच गयी हैं. इसके बावजूद अमेरिका दुनिया का ‘रेप कैपिटल’ घोषित नहीं हुआ. वहां यह भी तय होता है कि बलात्कार ‘जबरदस्ती’ हुआ या सहमति से. अमेरिका से कोई सवाल नहीं कर सकता कि बलात्कार की परिभाषा तय करनेवाले तुम होते कौन हो? और फिर अकेले अमेरिका ही क्यों? स्वीडन, निकारागुआ, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, जापान, बोत्सवाना जैसे देश दुनिया भर में बलात्कार का रिकार्ड बना चुके हैं. बालकों से दुष्कर्म के मामले में कांगो अब तेजी से कुख्यात हो रहा है. युगांडा भी इसी राह पर है.

लेकिन इस बात पर पूरा यूरोपीय संघ एकमत है कि बलात्कार जितना जघन्य हो, चाहे पीड़िता की क्रूर तरीके से हत्या हो जाये, अपराधी को फांसी नहीं होनी चाहिए. क्या इसे भारतीय मानस दिल से स्वीकार करता है? और जिसके साथ गुजरती है, क्या वह पीड़िता या उसके परिजन यह मानने को तैयार हैं कि ऐसी बर्बरता के लिए सामान्य सजा हो? आप भी सोचिये, और बताइये भी!

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