क्या हम सचमुच उदार-सहिष्णु हैं?

।। सत्य प्रकाश चौधरी।।(प्रभात खबर, रांची)बचपन से ही भारतीय संस्कृति के उदार और सहिष्णु होने की घुट्टी इस कदर पिलायी गयी है कि हम कभी इस पर सवाल उठाने की जहमत ही नहीं उठाते. जब भी कोई ‘मुजफ्फरनगर’ हमारे सामने खड़ा हो जाता है, तब हम शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर बालू में धंसा लेते […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 13, 2013 2:12 AM

।। सत्य प्रकाश चौधरी।।
(प्रभात खबर, रांची)
बचपन से ही भारतीय संस्कृति के उदार और सहिष्णु होने की घुट्टी इस कदर पिलायी गयी है कि हम कभी इस पर सवाल उठाने की जहमत ही नहीं उठाते. जब भी कोई ‘मुजफ्फरनगर’ हमारे सामने खड़ा हो जाता है, तब हम शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर बालू में धंसा लेते हैं, या फिर सारा दोष उन समुदायों पर थोप देते हैं, जो महान हिंदू संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं.

लेकिन, हकीकत यह है कि हमारी उदारता-सहिष्णुता पर ‘नियम और शर्ते’ लागू हैं, जैसे विभिन्न कंपनियों के ऑफर के मामले में होता है. क्या है यह नियम और शर्त? यह कोई लंबी-चौड़ी संहिता नहीं है, बस एक सूत्र वाक्य है- बराबरी का हक न मांगें, ‘बड़ों’ के सामने ‘छोटा’ बन कर रहें. एक तरह से कहें, तो भारतीय संस्कृत में फिट बैठने का यह लिटमस टेस्ट है. जो इस टेस्ट में पास हो जाता है, उसे भारतीय संस्कृति सहिष्णु व उदार लगती है. और जो फेल हो जाता है, उसे उसकी औकात बता दी जाती है. कभी गोहाना में, तो कभी मुजफ्फर- नगर में.

भारतीय संस्कृति के इस पक्ष को दलित, अल्पसंख्यक, महिलाएं, आदिवासी आदि अच्छी तरह समझते हैं. लेकिन, बराबरी के लिए उन्हें बार-बार इस नियम और शर्त का उल्लंघन करना पड़ता है, भले ही इसके लिए उन्हें मारा-काटा और जलाया जाये. यह तो बृहत् स्तर की बात हुई. अगर आप सूक्ष्म स्तर पर देखें, तो भी आपको यह लिटमस टेस्ट बिल्कुल खरा मालूम पड़ेगा. बाप उन्हीं बच्चों को पसंद करते हैं, जो हर सही-गलत बात सिर झुका कर मान लें, किसी बात पर बहस न करें. कैरियर से लेकर जीवनसाथी तक बाप की मरजी से चुनें. बच्चा अगर लड़की है, तो नियम व शर्ते और कठोर हो जाती हैं. इसी तरह, कोई मर्द अपनी बीवी से चाहे जितनी मोहब्बत करता हो, लेकिन जैसे ही वह बराबरी की बात करती है, उसे उसकी जगह याद दिला दी जाती है.

‘दिल की रानी’ एकाएक ‘पैर की जूती’ में तब्दील हो जाती है. हमारे शिक्षकों को भी आज्ञाकारी और सवाल न करनेवाले छात्र ही चाहिए होते हैं. अगर छात्र ने शिक्षक से बराबरी के स्तर पर बात करने की गुस्ताखी की, तो समझ लीजिए कि उसकी खैर नहीं. यही वजह है कि हमारे विश्वविद्यालयों में मेधावी छात्र टपला खाते रह जाते हैं, और ‘चेले’ गुरुकृपा से गुरु बन कर विराजमान हो जाते हैं. अगर अब भी आपको इस लिटमस टेस्ट पर यकीन न हुआ हो, तो समझ लीजिए कि आप किरायेदार नहीं, बल्कि मकान मालिक हैं. हर किरायेदार इस लिटमस टेस्ट को सौ फीसदी खरा बतायेगा. क्योंकि वह जानता है कि अगर उसने मकान मालिक के सामने दब कर नहीं रहने और बराबरी करने की गुस्ताखी की, तो उसके बोरिया-बिस्तर बांध लेने की नौबत आ जायेगी. बराबरी को बरदाश्त न कर पाने की मिसालों की फेहरिस्त बनाने बैठ गया, तो न जाने कितने पन्ने भर जायेंगे. इसलिए, इस फिजूल काम को छोड़ अपनी ‘उदारता-सहिष्णुता’ पर एक बार फिर से सोचें.

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