सरकार का एक साल, उभरे कई सवाल
पहले बारह महीनों में से दो महीने विदेश यात्र में इस आस में गुजारे गये कि विदेशी पूंजी के आसरे देश के इन्फ्रास्ट्रर को ठीक किया जा सकता है. उत्पादन करनेवाला देश बनाया जा सकता है. रोजगार पैदा किया जा सकता है. लेकिन हुआ क्या? राष्ट्रपति भवन के खुले परिसर में 26 मई, 2014 को […]
पहले बारह महीनों में से दो महीने विदेश यात्र में इस आस में गुजारे गये कि विदेशी पूंजी के आसरे देश के इन्फ्रास्ट्रर को ठीक किया जा सकता है. उत्पादन करनेवाला देश बनाया जा सकता है. रोजगार पैदा किया जा सकता है. लेकिन हुआ क्या?
राष्ट्रपति भवन के खुले परिसर में 26 मई, 2014 को नरेंद्र मोदी की अगुवाई में 45 सांसदों ने मंत्री पर की शपथ ली, लेकिन देश-दुनिया की नजरे सिर्फ मोदी पर ही टिकी. और साल भर बाद भी सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ही काम करते हुए नजर आ रहे हैं. पहले बरस ने देश को यह पाठ भी पढ़ाया कि चुनाव जीतने के लिए अगर पूरा सरकारी तंत्र ही लग जाये तो भी सही है. क्योंकि चुनाव जीतने के बाद कोई अंगुली उठा नहीं सकता. राजनीतिक सत्ता जनता के वोट के बदले जनता को जीने का ढंग सिखा सकती है, कोई चूं तक नहीं कह सकता.
मोदी जीते तो बीजेपी की सामूहिकता हारी. मोदी जीते तो संघ का स्वदेशीपन हारा. मोदी जीते तो राममंदिर की हार हुई और विकास की जीत हुई. मोदी जीते तो हाशिये पर पड़े तबके की बात हुई, लेकिन दुनिया की चकाचौंध जीती. मोदी पीएम बने तो विकास और हिंदुत्व टकराया और विदेशी पूंजी के लिए हिंदुस्तान को बाजार में बदलने का नजरिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को भी भाता नजर आया. यानी पहले बरस का सवाल यह नहीं है कि बहुसंख्यक तबके की जिंदगी विकास के नाम पर चंद हथेलियों पर टिकाने की कवायद शुरू हुई और बेदाग सरकार का तमगा बरकरार रहा. सवाल यह भी नहीं है कि महंगाई उसी राज्य-केंद्र के बीच की घिंगामस्ती में फंसी नजर आयी, जो मनमोहन के दौर में फंसी थी. सवाल यह भी नहीं है कि काला धन किसी बिगड़े घोड़े की तरह नजर आने लगा, जिसे सिर्फ चाबुक दिखानी है. सवाल रोजगार के लिए कोई रोडमैप न होने का भी नहीं है और शिक्षा-स्वास्थ्य को खुले बाजार में धकेल कर धंधे में बदलने की कवायद का भी नहीं है. पहले बरस का सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस संसदीय राजनीति को खलनायक मान कर देश की जनता ने बदलाव के लिए मोदी को पीएम बना कर देश को बदलने के सपने संजोये, उसी जनता को पहले बरस बीतते-बीतते क्यों लगने लगा कि वह उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ था?
26 मई, 2014 के बाद क्या हुआ? कश्मीर में, जिन्हें आंतकवादियों के करीब बताया, उसके साथ मिल कर सत्ता बनाने में कोई हिचक नहीं हुई. महाराष्ट्र में जिसे फिरौती वसूलनेवाली पार्टी करार दिया, उसके साथ ही मिल कर सरकार बना ली. जिस चाचा-भतीजे के भ्रष्टाचार पर बारामती जाकर कसीदे पढ़े, उसी के एकतरफा समर्थन को नकारने की हिम्मत नहीं हुई. जिस झारखंड में आदिवासियों के तरन्नुम गाये, वहां का सीएम ही एक गैर-आदिवासी को बना दिया गया. पहले बरस का संकट तो हर उस सच को ही आईना दिखानेवाला साबित होने लगा, जिसकी पीठ पर सवार होकर जनादेश मिला. किसान खत्म हो रहा है. शिक्षा संस्थान शिक्षा से दूर जा रहे हैं. हॉस्पिटल मुनाफा बनाने के उघोग में तब्दील हो गये हैं. रियल एस्टेट काले धन को छुपाने का अड्डा बन चुके हैं. खनिज संपदा की विदेश लूट को ही नीतियों में तब्दील किया जा रहा है. सेना का मनोबल अंतरराष्ट्रीय कूटनीति तले तोड़ा जा रहा है. सुरक्षा के लिए हथियारों को मंगाने के बदले कमीशन में ही ज्यादा रुचि ली जा रही है. युवाओं के सामने जिंदगी जीने का कोई ब्लू प्रिंट नहीं है. हर रास्ता पैसे वालों के लिए बन रहा है. कई संस्थानों की गरिमा खत्म हो चुकी है.
एक बरस पहले लगा तो यही था कि पहली बार 1991 में अपनायी गयी बाजार अर्थव्यवस्था को ठेंगा दिखाया जायेगा. लेकिन रास्ता बना किस तरफ? विदेशी पूंजी पर विकास टिक गया. देसी व्यापारी, देसी उद्योगपतियों से लेकर देसी कामगार और देसी नागरिक आर्थिक नीतियों की व्यापकता में टुकटुकी लगाये, विदेशी पैसा और विदेशी कंपनियों के आने के बाद ठेके पर काम करने से लेकर ठेके पर जिंदगी जीने के हालात में बीते एक बरस से इंतजार में मुंह बाये खड़ा है. फिर जो कहा गया, वह हवा में काफूर हो गया. 26 मई, 2014 को सत्ता संभालने के महीने भर में ही यानी जून 2014 में तो दागी सांसदों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई को साल भर के भीतर अंजाम तक पहुंचाने का खुला वादा किया गया. लेकिन, साल बीता है तो भी संसद के भीतर 185 दागी मजबूती के साथ दिखाई देते रहे. जबकि, अगस्त 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा कि कम-से-कम पीएम और तमाम राज्यों के सीएम तो किसी दागी को अपने मंत्रिमंडल में न रखें.
दरअसल, पहला बरस तो भरोसा जगाने और उम्मीद के उड़ान देने का वक्त होता है. लेकिन भरोसा जगाने के लिए विदेशी कंपनियों से वायदे किये गये. उम्मीद उस बाजार को देने की कोशिश की गयी, जो सिर्फ उपभोक्ताओ की जेब पर टिकी है. जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने प्रचारकों पर गर्व रहता है, वह संघ परिवार पहली बार बदलते दिखा. प्रचारक से पीएम बने नरेंद्र मोदी ने उस ग्रामीण व्यवस्था को ही खारिज कर दिया, जिसे सहेजे हुए संघ ने 90 बरस गुजार दिये. स्मार्ट सिटी की सोच और बुलेट ट्रेन के ख्वाब से लेकर गांव-गांव शौचालय बनाने और किसान-मजदूर को बैंक के रास्ते जिंदगी जीने का ककहरा पढ़ाने का बराबर का ख्वाब सरकारी नीतियों के तहत पाला गया.
जिस रास्ते को 26 मई, 2014 को शपथ लेने से पहले देश की जनता के बीच खारिज किया गया, जब उसी रास्ते को बरस भर में ठसक के साथ मोदी सरकार ने अपना लिये, तो फिर साल भर की पहली उपलब्धि तो यह जरूर हुई कि बहुमत मनमर्जी की खुली छूट देती है. इसीलिए पहले बरस का सफर बीजेपी से ज्यादा नरेंद्र मोदी की जीत से जा जुड़ा. ऐसे में बीजेपी हेडक्वॉर्टर से लेकर संघ हेडक्वॉर्टर तक में सांसद हो या स्वयंसेवक, हर किसी को मोदी के पीछे खड़ा होना पड़ा.
पहले बारह महीनों में से दो महीने विदेश यात्र में इस आस में गुजारे गये कि विदेशी पूंजी के आसरे देश के इन्फ्रास्ट्रर को ठीक किया जा सकता है. उत्पादन करनेवाला देश बनाया जा सकता है. रोजगार पैदा किया जा सकता है. बची हुई पूंजी से किसान-मजदूर, बीपीएल परिवार, हाशिये पर पड़े तबकों को मदद भी की जा सकती है. यानी विकास का समूचा नजरिया उसी उपभोक्ता समाज की जरूरतों के मुताबिक देखा-समझा गया, जिसे देख कर दुनिया भारत को बाजार माने.
तो पहले बरस का आखिरी सवाल यही उभरा कि बीते दस बरस के उस सच को मोदी सरकार आत्मसात करेगी या बदलेगी, जहां देश के 40 फीसदी संसाधन सिर्फ 62 हजार लोगो में सिमट चुके हैं. आर्थिक असमानता में तीस फीसदी के अंतर और बढ़ चुका है. यानी जिन नीतियों पर पहले बरस की सोच गुजर गयी, उनके मुताबिक, देश के 25 करोड़ के बाजार के लिए सरकार को जीना है और वहीं से मुनाफा बना कर बाकी के सौ करोड़ लोगों के लिए जीने का इंतजाम करना है.
पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
punyaprasun@gmail.com