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बदलाव, चुनौती और कुछ उम्मीदें

भारत-चीन धुरी का दूसरा महत्वपूर्ण स्तर आर्थिक है. भारी व्यापार घाटे के कारण भारत को हो रहे नुकसान को जारी रखना संभव नहीं है. अगर इस खाई को भारतीय निर्यात के जरिए नहीं पाटा जा सकता है, तो इसके एवज में चीन को निवेश करना होगा. अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जानकार डॉ हेनरी किसिंजर ने लिखा […]

भारत-चीन धुरी का दूसरा महत्वपूर्ण स्तर आर्थिक है. भारी व्यापार घाटे के कारण भारत को हो रहे नुकसान को जारी रखना संभव नहीं है. अगर इस खाई को भारतीय निर्यात के जरिए नहीं पाटा जा सकता है, तो इसके एवज में चीन को निवेश करना होगा.

अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जानकार डॉ हेनरी किसिंजर ने लिखा है कि सोवियत संघ के लंबे समय तक विदेश मंत्री रहे आंद्रेई कोसिगिन हर सुबह एक घंटा दुनिया के नक्शे को ध्यान से देखते थे. सोवियत संघ के महाशक्ति रहने के उस दौर में एक ऐसे वरिष्ठ राजनेता की बौद्धिकता का यह बुद्धिमत्तापूर्ण निवेश था. लेकिन नीति-निर्माता जानते हैं कि सत्ता के रूप और प्रभाव की अस्थिर रेखाएं निरंतर गतिशील हैं. विदेश नीति किसी निर्धारित भूखंड की यात्रा से कहीं अधिक ऊपरी और अंदुरूनी धाराओं के प्रबंधन से संबंधित होती है.

भारत और चीन के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कठिन संबंधों को परस्पर लाभदायक मंजिल की तरफ किस तरह ले जाया जाये. अभी यह उस महान क्षितिज की ओर यात्र नहीं है. वह भी हो सकती है, पर उसमें अभी बहुत समय लगेगा. व्यावहारिकता यह सुनिश्चित करना है कि हर पड़ाव पिछले ठिकाने से कुछ बेहतर हो. सुविचारित संकेतों से सज्जित पिछली दो मुलाकातों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक माहौल बनाया है जो निष्क्रि यता, और शायद लापरवाही, के कारण कहीं खो गया था. उन्होंने अपनी तरह से वर्तमान को परिभाषित किया है. मोदी ने कहा कि कुछ नहीं करना विकल्प नहीं है, और न ही पीछे लौटना समझदारी, आगे बढ़ना ही विवेकपूर्ण है. राष्ट्रपति ने माओ का कथन उद्धृत किया : 10 हजार साल बहुत लंबी अवधि है, हमें इस दिन, इस घंटे का उपयोग करना है. क्या हम नक्शे पर बिना देर तक और ध्यान से देखे कोई कदम उठा सकते हैं? नक्शे पर बनी सीमाएं गहन इतिहास के बोझ से लदी हैं, और इस कारण वह बहुत ही नाजुक हैं. भारत और चीन ने अपने सीमा-विवाद के प्रति एक हद तक परिपक्वता दिखाई है और यह सुनिश्चित किया है कि कोई भी टकराव संघर्ष में न बदल जाए. लेकिन एक गहरे घाव का यह सिर्फ प्राथमिक उपचार भर है, इसी कारण शिखर वार्ताओं का असर समाप्त होने पर तनातनी उभर आती है.

पाकिस्तान के स्वाभाविक रूप से निहित स्वार्थ हैं, और चीन में एक सक्रि य पाकिस्तानी लॉबी है जो उकसावे के चिर-परिचित तौर-तरीके अपनाती रहती है. चीन ने हिमालय के दक्षिण में एक रणनीतिक सहयोगी के रूप में पाकिस्तान में भारी निवेश किया है और अब वह पाकिस्तान की गिरती अर्थव्यवस्था को उठा कर संरक्षक की भूमिका को सुदृढ़ कर रहा है. लेकिन, आखिरकार, भारत के साथ बातचीत में चीन यह मानने के लिए तैयार हो गया है कि उसके सिंक्यांग प्रांत में चल रही अलगाववादी गतिविधियों को पाकिस्तान के अंदर मौजूद तत्वों से मदद मिलती है.

भारत-चीन धुरी का दूसरा महत्वपूर्ण स्तर आर्थिक है. भारी व्यापार घाटे के कारण भारत को हो रहे नुकसान को जारी रखना संभव नहीं है. अगर इस खाई को भारतीय निर्यात के जरिए नहीं पाटा जा सकता है, तो इसके एवज में चीन को निवेश करना होगा. वर्ष 2000 से चीन ने एक-तरफा रास्ते पर चलने का आनंद लिया है. भारत में विदेशी निवेश में उसकी हिस्सेदारी आधी फीसदी से भी कम है. चीन ने 10 बिलियन डॉलर निवेश की बात कही है, पर यह पूरी कहानी नहीं है. तीसरा स्तर भी उतना ही महत्वपूर्ण है, पर उसे आंकड़ों में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है. कोई आरामपसंद आशावादी निष्कर्ष निकाल सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी के बीच संबंध भारत-चीन संबंधों की तुलना में बेहतर हैं. चीन और भारत के बीच महती सद्भावना तब समाप्त होनी शुरू हुई थी, जब प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाई 1956 में बांडुंग सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू की सरपरस्ती से नाराज होने लगे थे.

आप निश्चिंत हो सकते हैं कि जब शियान के बौद्ध मंदिर में सिर्फ अपने अनुवादकों की संगति में मोदी-जिनपिंग ने बातचीत की, तो इतना भरोसा तो बना ही लिया कि वे गंभीर मसलों के हल के लिए संभावित प्रयासों की चर्चा कर सकें. शी ने इतिहास को संदर्भित करते हुए माओ का कथन उद्धृत किया. माओ ने यह बात 1972 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के साथ वार्ता के दौरान कही थी और किसिंजर की ओर संकेत किया था कि यह व्यक्ति अवसर को सही दिशा में ले जा सकता है. किसिंजर ने अपनी किताब में लिखा है कि उक्त कथन के आगे कही गयीं पंक्तियां और भी अधिक मानीखेज हैं : मेरी समझ से, आम तौर पर, मेरे जैसे लोग बड़ी तोपों की तरह आवाज करते हैं. (चाऊ हंसते हैं.) और यह कि, पूरी दुनिया को एक होकर साम्राज्यवाद, संशोधनवाद, और सभी प्रतिक्रि यावादियों को परास्त करना चाहिए, तथा समाजवाद की स्थापना करनी चाहिए. यह कह कर माओ खूब जोर से हंस पड़े थे. माओ का संदेश था कि विचारधारा को द्विपक्षीय संबंधों से अलग रखा जाए. आप किसी अवरोध के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हुए पूरी जिंदगी काट सकते हैं. चीन को 1972 में निक्सन के साथ संबंध बना सकने का भरोसा था. उसे 2015 में मोदी के साथ संबंध बनाने का भरोसा है.

एमजे अकबर

प्रवक्ता, भाजपा

delhi@prabhatkhabar.in

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