चीन यात्रा से क्या खोया, क्या पाया

भारत के प्रधानमंत्री ने खुद अपने बारे कुछ ऐसी अपेक्षाएं जगायी हैं कि उनके काम-काज का लेखा-जोखा तैयार करते वक्त इस्तेमाल की जानेवाली कसौटी जरा ज्यादा ही सख्ती से घिसी जाती है. चीन के दौरे के बारे में भी यही हो रहा है. आरंभ में ही तह साफ करने की जरूरत है कि इस दौरे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 18, 2015 6:05 AM
भारत के प्रधानमंत्री ने खुद अपने बारे कुछ ऐसी अपेक्षाएं जगायी हैं कि उनके काम-काज का लेखा-जोखा तैयार करते वक्त इस्तेमाल की जानेवाली कसौटी जरा ज्यादा ही सख्ती से घिसी जाती है. चीन के दौरे के बारे में भी यही हो रहा है.
आरंभ में ही तह साफ करने की जरूरत है कि इस दौरे को कुछ ज्यादा ही तूल दिया जा रहा है. नेपाल, भूटान, श्रीलंका सरीखे सामरिक दृष्टि से संवेदनशील पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने के बाद मोदी यह भी दर्शा चुके हैं कि यूरोप की बड़ी समझी जानेवाली ताकतों- फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के साथ यथार्थवादी ढंग से विश्लेषण के बाद वह उभयपक्षीय राजनय को संचालित कर रहे हैं. चीन जाने के पहले वह ‘पूरब’ में जापान के साथ आर्थिक-तकनीकी सहकार की बुनियाद पुख्ता कर चुके हैं.

यह भी भुलाना असंभव है कि ओबामा के साथ दोस्ती का सहारा लेकर, भारतवंशियों को प्रभावशाली औजार के रूप में इस्तेमाल कर वह उस महाशक्ति के साथ मनोमालिन्य को काफी कम करने में भी कामयाब रहे हैं. ऑस्ट्रेलिया और कनाडा, जो अमेरिका के इशारे पर भारत का प्रतिरोध करते रहे हैं- खास कर परमाणविक अप्रसार के बहाने- अब पटरी पर लाये जा चुके हैं. बहुपक्षीय राजनयिक मंचों पर (ब्रिक्स और जी-20 वाले) भारत अपना पक्ष मजबूती से रख सका है. अर्थात् अब तक चीन को यह संकेत स्पष्ट रूप से पहुंचाया जा सका है कि भारत विकल्पहीन नहीं है और न ही अपने उदीयमान अवतार में चीन के सामने दयनीय मुद्रा में है. इस बार भी चीन के साथ इस दौरे में मंगोलिया तथा दक्षिण कोरिया को शामिल किया गया है. चीन के लिए यह गलतफहमी पालना नादानी होगी कि उसे खास भाव मिल रहा है.

यह कहने के तत्काल बाद यह जोड़ने की जरूरत है कि जिस तरह 24 अभूतपूर्व समझौतों का प्रचार हो रहा है, उनकी असलियत गालिब के मशहूर शेर में वर्णित जन्नत की हूरों जैसी है. हर बार इस स्तर की राजनयिक यात्रओं पर ‘महत्वपूर्ण’ ऐतिहासिक समझौतों का चर्चा रस्म अदायगी है. असली सवाल यह है कि इन समझौतों तथा इस अवसर पर संपन्न सौदों का क्रियान्वयन कैसे होता है? कुछ ही महीने पहले जब भारत ने चीनी राष्ट्रपति की मेजबानी की थी, तब भी कुछ विशेष ऐतिहासिक समझौते हुए थे. उनकी प्रगति का हिसाब क्या है?
दो दर्जन समझौतों में सहोदर शहरों-प्रांतों का बखान पहले भी हो चुका है. इस भाईचारे या बहिनापे से किसी सखा-सहेली को लाभ होनेवाला नहीं, हां कुछ मुख्यमंत्रियों का, प्रांतीय क्षत्रपों या उद्यमियों का अहं तुष्ट हो सकता है! हमारी समझ में जो दो समझौते विचारोत्तेजक हैं, वे शंघाई में गांधीवादी दर्शन का अध्ययन पीठ तथा कहीं और योग केंद्र स्थापित करनेवाले हैं. गांधी बनाम माओ वाली बहस पुरानी है. चीन में ‘महान सांस्कृतिक क्रांति’ के उथल-पुथल भरे दौर में यह तुलना दो देशों के बीच दरार गहराती रही थी. अहिंसा, सिविल नाफरमानी, सत्याग्रही प्रतिरोध की चुनौती हांगकांग में आज भी चीन का सरदर्द बने हुए हैं. तिब्बत और जिंकियांग के संदर्भ में भी गांधी को नौजवानों से परिचित कराने की अनुमति-सहमति असाधारण रियायत ही समङिाए. कुछ ही समय पहले चीनी पारंपरिक ‘फालुंगगौंग’ पद्धति से सार्वजनिक स्थानों पर व्यायाम करनेवालों पर चीनी सरकार ने चाबुक फटकारी थी. यह कम रोचक नहीं कि अब वह योग और ‘ताइ चि’ के साम्य के आधार पर भारत और चीन को एक-दूसरे के और करीब लाने को रजामंद है!
जहां तक रेल प्रणाली के आधुनिकीकरण वाला समझौता है, कड़वा सच यह है कि डेढ़ सौ साल पुरानी हमारी पटरियां बुलेट ट्रेन का बोझ बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं. जापान हो या फ्रांस, दूसरा कोई देश भी इसी कारण इस मसले में मददगार होने से कतराता रहा है. अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में यह चुनौती और भी विकट है. इन दोनों समझौतों का तटस्थ मूल्यांकन यही है कि यह कोई सौंदर्य प्रसाधन जैसी कवायद है.
यह अटकलें लगायी जाती रही हैं कि संभवत: भारतीय उद्यमियों के लिए चीन अपना बाजार आइटी, औषधियों तथा सेवाओं के लिए अबाध खोलेगा. ऐसा कुछ हुआ नहीं. परंतु अभी शंघाई वाली उद्यमियों की समानांतर वार्ताएं बकाया हैं. अपने-अपने हित साधन का समायोजन यह प्रतिनिधि भारत के राष्ट्रहित के साथ कैसे करते हैं, देखने लायक होगा.
घुमा-फिरा कर बात हर बार पहुंच जाती है सीमा-विवाद के निबटान वाले मुद्दे पर. इस घड़ी नरेंद्र मोदी के आलोचक इस आलोचना में व्यस्त हैं कि क्यों इस विषय पर कोई समझौता नहीं हुआ. हमारी समझ में यह दोहरे मानदंडों की ही मिसाल है. सौ साल पुराने, औपनिवेशिक काल से साम्राज्यवादी विरासत में प्राप्त इस पेचीदे झगड़े का निबटारा पलक झपकते असंभव है. समझौता भले ही न हो सका हो, नरेंद्र मोदी ने चीन की जमीन पर मजबूती से पैर टिका भारत का पक्ष दोटूक रखा, जो आज तक किसी भारतीय नेता ने नहीं किया है. चीन की शैली में ही उन्होंने साफ-साफ कहा कि हमारी प्राथमिकता वास्तविक नियंत्रण रेखा है, यह जोड़ते हुए कि दोनों ही पक्ष इस बात से अनभिज्ञ हैं कि जमीनी हकीकत क्या है? इस विषय पर अटका-भटका परामर्श फिर से तत्काल शुरू करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

अगर संबंध प्रगाढ़ बनाये जाने हैं, तो अतीत में ही कैद रहने से कुछ हासिल होनेवाला नहीं है और यह भी कहा कि यथास्थिति बरकरार रखनेवाला विकल्प भी समाधान नहीं है. उन्होंने चीन को दूरदर्शी रवैया अपना कर भारत के साथ अंतरराष्ट्रीय मंच पर जुगलबंदी साधने का आमंत्रण दिया, पर इसके लिए पहले नयी सोच की जरूरत को रेखांकित किया.

चीन के साथ हमारे व्यापार का असंतुलन भी पिछले एक साल में नहीं पैदा हुआ है. यूपीए राज के दस वर्षो में ही यह असंतुलन बढ़ता रहा है. यह सोचना या सुझाना तर्कसंगत नहीं कि किसी समझौते पर हस्ताक्षर करने भर से यह असंतुलन समाप्त होनेवाला है. इसमें वक्त लगेगा. भारत के अंतरराष्ट्रीय व्यापार के संदर्भ में चीन के साथ ही तेल निर्यातक देश कम अहमियत नहीं रखते, जहां चीन का विशाल बाजार आकर्षक है, पाकिस्तान को छोड़ कर भी, हमारा घरेलू-स्वदेशी, दक्षिण एशियाई बाजार यथेष्ट है. सस्ते श्रम के लिए भी हम चीन के मोहताज नहीं.
इसे अनदेखा न करें कि एशिया हो या विश्व, चीन के साथ सहयोग और सहकार की सीमाएं हैं. दोनों देश एक-दूसरे के प्राथमिक प्रतिस्पर्धी हैं और रहेंगे भी-खाद्य सुरक्षा हो या ऊर्जा सुरक्षा. अत: समझौतों की गिनती में न उलङो रहें, जरा दूर की सोचें. बाकी दुनिया का भी कुछ हिसाब-किताब रखें!
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com

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