क्या मोदी की नीति ‘दागो और भागो’ है

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार मौकापरस्त सेलेब्रिटिज द्वारा झाड़ू लेकर सफाई अभियान में भाग लेने पर प्रधानमंत्री की बधाई वाले ट्वीट्स से देश की सफाई होती, तो हमारे शहर सिंगापुर बन गये होते. हमारे शहर यदि आज भी गंदे हैं, तो इसके लिए दोषी हम हैं, न कि सरकार.कहा जाता है कि फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 19, 2015 5:38 AM
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
मौकापरस्त सेलेब्रिटिज द्वारा झाड़ू लेकर सफाई अभियान में भाग लेने पर प्रधानमंत्री की बधाई वाले ट्वीट्स से देश की सफाई होती, तो हमारे शहर सिंगापुर बन गये होते. हमारे शहर यदि आज भी गंदे हैं, तो इसके लिए दोषी हम हैं, न कि सरकार.कहा जाता है कि फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति वलेरी जीस्कार दस्तां यूरोपीय संघ के विचार से रोमांचित तो थे, लेकिन इसकी बारीकियों ने उन्हें बोर कर दिया था.
भारत के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अस्तव्यस्त परियोजनाओं को उनकी दृष्टि के रूप में समङों, तो उनकी इस दृष्टि के बारे में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है. दरअसल, उनकी सोच में सामंजस्य की कमी उनकी धुन में नजर आती है, जिसे सैन्य शब्दावली में ‘दागो और भागो’ के तौर पर कहा जा सकता है.
इसका मतलब यह है कि प्रधानमंत्री मोदी यहां-वहां गोलियों की बौछार कर रहे हैं और फिर सब कुछ छोड़ कर अगले विचार की ओर बढ़ जाते हैं, लेकिन उनके विस्तार में जाना यानी उसकी बारीकी उन्हें बोर करती है. काले धन का ही मामला ले लीजिये. पिछले साल लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने इस संबंध में बहुत कुछ कहा था और इसकी नाकामी के बारे में अब उनके सहयोगियों को जवाब देना पड़ रहा है.
हालांकि, काले धन की मात्र कितनी है या फिर यह कितनी जल्दी वापस आयेगा, ऐसे मसलों से हम दूर भी रहें, (क्योंकि इसमें हमें खुद बोर होने की आशंका है), लेकिन एक विचारक के तौर पर उन्हें खोजने की बात दिमाग में रखिये.
सत्ता पर काबिज होने के तत्काल बाद प्रधानमंत्री मोदी ने दो शानदार परियोजनाएं दागीं. पहला, स्वच्छ भारत अभियान और दूसरा मेक इन इंडिया.
पहली परियोजना की घोषणा होने के बाद मैं कुछ हद तक भ्रमित हो गया. मुङो भ्रम यह था कि क्या वह भारत की सड़कछाप संस्कृति को बदलने की कोशिश कर रहे थे, गांधीजी की तरह अपने व्यक्तिगत उदाहरण से हमें शर्मसार कर रहे थे?
मन में ऐसी आशंका इसलिए भी पनप रही थी, क्योंकि इस योजना के पहले दिन की उनकी तसवीरों से यही संदेश सामने आ रहा था. या फिर इसका लक्ष्य आडंबर तो नहीं था. या फिर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के तौर पर यह पिछली सरकारों की शौचालय निर्माण की विभिन्न योजनाओं को दिया गया महज एक ‘टाइटल’ था? अखबारों में प्रकाशित किये गये विज्ञापनों से तो कम-से-कम ऐसा ही लगता है. आखिरकार यह क्या है? अंतिम लक्ष्य के तौर पर इससे हासिल क्या हो रहा है?
देशभर में कितने शौचालयों का निर्माण किया गया या फिर कितने भारतीयों को सभ्य बनाने में कामयाबी मिली? इस बारे में मेरी अनिश्चितता अब भी बरकरार है कि क्या वाकई में यह अभियान नाकाम हो गया है, क्योंकि मेरी तरह तमाम अधिकारी भी भ्रमित हैं और वे भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इस कार्यक्रम को कैसे लागू किया जाये. मौकापरस्त सेलेब्रिटिज द्वारा झाड़ू लेकर सफाई अभियान में भाग लेने पर प्रधानमंत्री की बधाई वाले ट्वीट्स से देश की सफाई होती, तो हमारे शहर सिंगापुर बन गये होते.
देश के शहर यदि आज भी गंदे हैं, तो इसके लिए दोषी हम हैं, न कि सरकार. लेकिन मोदी को समाज सुधार में कूदने के लिए किसने कहा था? कम से कम उन लोगों ने तो नहीं ही कहा था, जिन लोगों ने उन्हें वोट दिया था.
‘मेक इन इंडिया’ की ओर बढ़ते हैं. क्या है यह? कैसे काम करेगा यह? भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर का कहना था कि इस अभियान का कोई खास महत्व नहीं है. हो सकता है कि उनकी बात सही हो, लेकिन इतना तो आपको मानना ही पड़ेगा कि इसका ‘लोगो’ बेहतरीन है. और सुनने में भी यह बहुत अच्छा लगता है. इस योजना की लॉन्चिंग के मौके पर मुकेश अंबानी ने कहा था यह ‘मेड इन इंडिया’ नहीं, बल्कि ‘मेक इन इंडिया’ है, जो इसकी तात्कालिकता को दर्शाता है.
मोदी के विरोधियों समेत उन्हें नापसंद करनेवालों को भी इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि मोदी को नामकरण में महारत हासिल है. शहरी नवीकरण मिशन के संदर्भ में अमरुत (अटल मिशन फॉर रिजूविनेशन एंड अरबन ट्रांसफॉरमेशन) नाम ‘जेएनयूआरएम’ से बेहतर है.
तो फिर विस्फोटक अंदाज में किये गये अभियान की शुरुआत और अखबारों में पूरे पन्ने के विज्ञापनों के बाद ‘मेक इन इंडिया’ का क्या हुआ?
वास्तव में मुङो पता नहीं है. और ऐसे कम ही लोग होंगे, जो यह कहेंगे कि उन्हें इसके बारे में जानकारी है. बतौर एक सेक्टर मैनुफैक्चरिंग यदि अब भी घिसट रहा है, तो यह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर द्वारा इस संदर्भ में पेश की गयी वास्तविक तसवीर को बताता है.
प्रधानमंत्री मोदी की पूरी दुनिया में जिस एक बात को लेकर तारीफ हुई, वह है उनकी ऊर्जावान विदेश नीति. अमेरिका के साथ उस समझौते को मोदी सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाने में कामयाब रहे, जिस समझौते को पूरा करने के लिए उनकी पार्टी ने मनमोहन सिंह सरकार की राह में रोड़े अटकाये थे. और फिर ऐसा दावा किया कि वियना कांग्रेस के बाद यह सबसे बड़ी कूटनीतिक सफलता है.
सरकार का बहुमत में होने के कारण यह उनका विशेषाधिकार है और उनके विरोधियों को इस पर रुदन बंद करना चाहिए.
लेकिन वास्तव में उनकी विदेश नीति क्या है? हमारे सबसे महत्वपूर्ण और साथ ही सबसे खतरनाक पड़ोसी यानी पाकिस्तान के प्रति क्या कदम उठाये गये. हम दोस्त हैं या दुश्मन?
प्रधानमंत्री के भव्य शपथ-ग्रहण समारोह में पाकिस्तान को बुलाया गया, पेशावर स्कूल में बच्चों पर हुए हमले के बाद हमदर्दी जतायी, खेल के मैदान में पाकिस्तान की जीत पर बधाइयां दी, ‘दो कश्मीरियों’ के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने पर भौंहें तानीं, सीमा पर निरंतर होनेवाली फायरिंग का पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने का वादा किया और अभी तो एक वर्ष का समय भी नहीं पूरा हुआ है. कोई निरंतरता नहीं, कोई दृष्टि नहीं, कोई सोच नहीं.
डेटा जर्नलिज्म वेबसाइट ‘इंडिया स्पेंड’ के एक हालिया लेख के मुताबिक, कमजोर, भ्रष्ट, अक्षम और कुनबापरस्त मनमोहन सिंह सरकार और मजबूत, कठोर व साफ-सुथरी मोदी सरकार का प्रदर्शन अपने कार्यकाल के पहले साल में तकरीबन समान ही रहा है. लेकिन मैं यह बता रहा हूं कि क्यों मोदी सरकार ने बेहतर काम किया है.
दरअसल, कुछ लोगों ने आशंका जतायी थी कि वह देश में फासीवादी शासन लायेंगे, जो गलत साबित हुए हैं. कई लोगों का मानना था कि वह आमूलचूल बदलाव लायेंगे और देश में नयी जान फूकेंगे. वे निराश हुए.
ज्यादातर मतदाताओं को उनसे कुछ अधिक ही उम्मीदें थीं. केंद्र सरकार में कुछ कम भ्रष्टाचार, घोटालों की कुछ कम कहानियां, मध्यवर्ग के जीवन स्तर में आंशिक सुधार और नेताओं से कुछ ज्यादा मनोरंजन की उम्मीद. इस मामले में उन्हें निराशा नहीं हुई है.

Next Article

Exit mobile version