देश की आजादी के 68 साल बाद भी देश में मार्क्स और मैकाले के मानस पुत्रों की कमी नहीं है. 13 मई, 2015 को प्रभात खबर में प्रकाशित पवन के वर्मा का ‘भगवाकरण की घातक प्रक्रिया’ उपरोक्त मानसिकता का प्रतिनिधित्व करता है.
भगवा रंग को बुरा-भला कहने से पहले यह वर्ग भूल जाता है क यह रंग आदरणीय राष्ट्र ध्वज में सबसे ऊपर है. संघ की स्थापना के लाखों वर्ष पूर्व से ही यह रंग भारत के बहुसंख्यक हिंदू संन्यासियों का प्रिय रंग रहा है.
विज्ञान के द्वारा स्पष्ट किये जाने के बावजूद यह वर्ग अभी भी यही मानता है कि भारत के लोग सदा से असभ्य और अज्ञानी रहे हैं. जैसा कि मार्क्स और मैकाले की धारणा रही है. यह वर्ग यह मानने को राजी नहीं कि एक से लेकर गणितीय मानक भारतीय मनीषियों की ही देन हैं. हमें यह समझ में नहीं आता कि कल्पना से परे यह कैसी परिकल्पना है?
संध्या कुमारी, मेकॉन कॉलोनी रांची