भगवान से नहीं इंसान से है डर!

।।अखिलेश्वर पांडेय।।(प्रभात खबर, जमशेदपुर)पहले बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे- ‘अरे भगवान से तो डरो!’ आज हालात जुदा है. अब तो भगवान की भक्ति में लगे इंसान से डर लगने लगा है. पूजा-पाठ, भक्ति भावना की शैली बदल चुकी है. निष्ठा कम, दिखावा ज्यादा है. ढकोसला हावी है. नाच-गान की जगह मदमस्त ‘डांस’ ने ले ली है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 16, 2013 2:08 AM

।।अखिलेश्वर पांडेय।।
(प्रभात खबर, जमशेदपुर)
पहले बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे- ‘अरे भगवान से तो डरो!’ आज हालात जुदा है. अब तो भगवान की भक्ति में लगे इंसान से डर लगने लगा है. पूजा-पाठ, भक्ति भावना की शैली बदल चुकी है. निष्ठा कम, दिखावा ज्यादा है. ढकोसला हावी है. नाच-गान की जगह मदमस्त ‘डांस’ ने ले ली है. शोर-शराबा, रोशनी आदि पर बेइंतहा खर्च हो रहा है. जुलूस की शक्ल में उपद्रवी घूमते हैं. इनका व्यवहार आपको हतप्रभ कर सकता है. पता नहीं कब इनका मूड उखड़ जाये और ये आप पर टूट पड़ें. आपकी कौन सी बात इनको बुरी लग जाये, कुछ पता नहीं. हां, सतर्क आपको रहना है, इनकी नाराजगी से, इनको कोई बात बुरी लगने से, क्योंकि सुरक्षित आपको रहना है. धर्म-कर्म के मामले में गांवों की अपेक्षा शहरों में दिखावे की भावना अधिक है. ठाट-बाट, शानो-शौकत, साज-सज्जा. यह सब दूसरों के लिए ही होता है, अंत:करण की शुद्धि के लिए नहीं. मन की पवित्रता सर्वोपरि है, पर इसका ख्याल बहुत कम देखने को मिलता है.

जबरदस्ती चंदा वसूलना, नहीं देने पर लोगों को डराना-धमकाना और फिर इस धन को अनाप-शनाप तरीके से खर्च करना कौन-सा धर्म है? यह कैसी भक्ति है? दरअसल, धार्मिक कर्मकांड आज एक व्यवसाय की शक्ल ले चुका है. यही वजह है कि इसमें भक्ति भावना के बजाय मुनाफे का बोलबाला है. अर्थ सर्वोपरि है. जहां अर्थ पर जोर है, वहां तो अनर्थ होना ही है. कई पूजा समितियां मनमाने ढंग से आयोजन करने के लिए कानून में सहूलियत चाहती हैं. लोगों को डराने-धमकाने के लिए अपराधी तत्वों को पालती-पोसती हैं. बढावा देती हैं. इससे सांप्रदायिक और सामाजिक सद्भाव बिगड़ता है. सामान्य लोग ऐसे सार्वजनिक आयोजनों से खुद को दूर रखना ही पसंद करते हैं. इस तरह के अधिकांश आयोजनों में ‘पीने-खाने’ का दौर भी खूब चलता है.

इसी के बाद शुरू होता है र्दुव्‍यवहार का सिलसिला. कभी आपस में ही, तो कभी किसी बाहर वाले से. किसी निदरेष के साथ मारपीट, र्दुव्‍यवहार, सड़क पर चल रहे लोगों से अभद्रता की घटनाएं भी खूब होती हैं. गणोश उत्सव के बाद बारी है विश्वकर्मा पूजा की. इसके बाद दुर्गापूजा (दशहरा) का दस दिवसीय आयोजन आरंभ होगा. तैयारियां चल रही हैं. जिस भी स्थान पर ऐसे सार्वजनिक आयोजन होते हैं, वहां के लोगों से जरा पूछिए कि कैसे गुजरती हैं उनकी रातें? कैसे काटते हैं वे पूरा दिन? कैसे बिगड़ जाती है उनकी दिनचर्या? क्या हम सिर्फ दिखावे के लिए होनेवाले ऐसे धार्मिक आयोजनों से मुक्ति पा सकेंगे? क्या हम कभी बेहतर इंसान बन पायेंगे? क्या हम धर्म से इतर कभी कर्म की प्रधानता की महत्ता को समझ पायेंगे? क्या हम कभी कबीर के इस दोहे का अर्थ जान पायेंगे –

जैसे तिल में तेल है, जैसे चकमक में आग

तेरा साईं तुझमें है, तू जाग सके तो जाग.

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