‘लोकदेव नेहरू’ के 50 साल बाद
प्रभात रंजन कथाकार रामधारी सिंह दिनकर की बहुचर्चित किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’, जिसकी प्रस्तावना प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी, के प्रकाशन के 60 साल पूरे हो रहे हैं. साथ में यह दिनकर की एक और महत्वपूर्ण किताब ‘लोकदेव नेहरू’ के प्रकाशन का 50वां साल भी है. मुङो आश्चर्य होता है कि पंडित […]
प्रभात रंजन
कथाकार
रामधारी सिंह दिनकर की बहुचर्चित किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’, जिसकी प्रस्तावना प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी, के प्रकाशन के 60 साल पूरे हो रहे हैं. साथ में यह दिनकर की एक और महत्वपूर्ण किताब ‘लोकदेव नेहरू’ के प्रकाशन का 50वां साल भी है.
मुङो आश्चर्य होता है कि पंडित नेहरू की मृत्यु की अर्धशताब्दी के साल में इस किताब की तरफ कांग्रेस पार्टी का ध्यान भी नहीं गया, जबकि यह दिनकर जी की सबसे अच्छी पुस्तकों में शामिल है. दुर्भाग्य है कि जो लोग दिनकर के आलोचक रहे, उन्होंने इस किताब के शीर्षक से ही यह मान लिया होगा कि चूंकि दिनकर जी नेहरू के करीबी थे, इसलिए इस किताब में उन्होंने नेहरू जी के महिमामंडन का प्रयास किया होगा.
दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के नेताओं, बौद्धिकों ने इस किताब को इसलिए महत्व नहीं दिया, क्योंकि यह हिंदी में लिखी गयी है. खुद नेहरू का मॉडल यही था कि शिक्षा अंगरेजी ढंग की होनी चाहिए, ज्ञान अंगरेजी में होता है, विकास का मतलब यूरोपीय ढंग से आगे बढ़ना होता है.
संयोग से इस किताब में दिनकर ने नेहरू के व्यक्तित्व की इस फांस की तरफ बार-बार इशारा किया है कि वे हिंदी को अधिक महत्व नहीं देते थे, हिंदी लेखकों को भी. हालांकि, उनकी जनतांत्रिकता यह थी कि वे भले स्वयं हिंदी लेखकों को महत्व न देते रहे हों, लेकिन जनता में उनके प्रभाव को महत्व देते थे. इसीलिए नेहरू के शासनकाल में सबसे अधिक हिंदी लेखक राज्यसभा में रहे- मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा नवीन, स्वयं दिनकर भी.
‘लोकदेव नेहरू’ का महत्व क्या है? क्यों यह किताब नेहरू पर लिखी एक अलग तरह की किताब है? असल में यह पुस्तक पंडित नेहरू की कोई जीवनी नहीं है, न ही उनकी उनकी महानता की कोई गाथा है, बल्कि नेहरू को जिस तरह से एक सहज इंसान के रूप में दिनकर जी ने जाना था, जिस तरह से जनता के बीच उन्होंने उन्हें देखा था, उसे ही दिनकर जी ने इस पुस्तक में सहज भाव से लिखा है. इसमें उन्होंने आवश्यकतानुसार नेहरू की आलोचना भी की है. उनकी आध्यात्मिकता, धार्मिकता के प्रसंगों को भी छेड़ा है. लगे हाथ यह भी बता दूं कि नेहरू के किसी करीबी द्वारा लिखी गयी यह अकेली किताब है, जिसमें नेहरू के पूजा-पाठ के बारे में भी लिखा गया है.
कहते हैं कि किसी ने श्रीमती इंदिरा गांधी को यह किताब पढ़ने के लिए दे दी थी, जिसकी वजह से अचानक उनको 1969 में कांग्रेस ने दर-ब-दर कर दिया था और उन्हें दिल्ली छोड़ कर पटना जाना पड़ा था, जहां कुछ वर्षो बाद ही उनका देहांत हो गया था.
मेरे पास इस पुस्तक का जो संस्करण है, उसमें भूमिका के नीचे तारीख लिखी हुई है- 24 मई, 1965. यानी पचास साल पहले 24 मई के दिन दिनकर जी ने इस पुस्तक का लेखन समाप्त कर दिया था.
ऐसे दौर में जब जनतांत्रिकता संकट में लगने लगी है, ‘लोकदेव नेहरू’ पढ़ने की जरूरत है, जो नि:संदेह देश के सबसे जनतांत्रिक प्रधानमंत्री के जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को उजागर करती है. क्या दिनकर को इस रूप में भी याद किया जा सकता है?