सांस्कृतिक बदलाव कानून से नहीं आता
आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार तो, क्या मोदी जी को कामयाबी मिल सकेगी? नहीं, वे भी असफल होंगे, क्योंकि सांस्कृतिक बदलाव सिर्फ कानून से नहीं आता और रातों-रात तो कभी नहीं. यह हमारे अंदर से आता है और इसे गांधी समझते थे. पिछले दिनों यह खबर आयी थी कि संसद में एक नया विधेयक पेश होने […]
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
तो, क्या मोदी जी को कामयाबी मिल सकेगी? नहीं, वे भी असफल होंगे, क्योंकि सांस्कृतिक बदलाव सिर्फ कानून से नहीं आता और रातों-रात तो कभी नहीं. यह हमारे अंदर से आता है और इसे गांधी समझते थे.
पिछले दिनों यह खबर आयी थी कि संसद में एक नया विधेयक पेश होने जा रहा है, जिसमें गंदगी फैलाने पर ‘मौके पर ही जुर्माना’ कर दिया जायेगा. यह ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की प्रमुख खबर थी. इसका अर्थ यह है कि सरकार के अंदर के जिन लोगों ने गुप-चुप तरीके से इस विधेयक की सूचना दी और जिन्होंने इसे प्रकाशित किया, उनकी नजर में यह प्रस्तावित कानून महत्वपूर्ण है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि पर्यावरण मंत्रलय ‘गंदगी फैलाने, खुले में कूड़ा फेंकने, इलेक्ट्रॉनिक कचरा डालने, सार्वजनिक स्थलों को बदरंग करने और प्रतिबंधित प्लास्टिक थैलियों के इस्तेमाल करने को साधारण अपराध की श्रेणी में रखेगा और इसके लिए मौके पर ही जुर्माने का प्रावधान होगा. स्पष्ट है कि इससे सरकार के पसंदीदा कार्यक्रमों में एक ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को कानूनी ताकत मिलेगी.
इस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि ‘पिछले वर्ष अक्तूबर में शुरू की गयी प्रधानमंत्री की यह अहम योजना सिंगापुर के पहले प्रधानमंत्री ली क्वान यू के सफाई अभियान के मूल्यों के समान है, जिन्होंने गंदगी फैलानेवालों को दंडित करने का नियम बनाया था.’
क्या सिंगापुर इन मामलों में एक अच्छा आदर्श है और क्या ली क्वान यू द्वारा लागू किये गये उपाय हमारे यहां भी अपनाये जा सकते हैं? पहली बात, जो रेखांकित करने लायक है, चीनी (सिंगापुर में मुख्य रूप से चीनी ही बसे हुए हैं) अपने पास-पड़ोस में उस तरह से गंदगी नहीं फैलाते हैं, जैसा कि दक्षिण एशिया- भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- के लोग करते हैं. इस मामले में श्रीलंका एक अपवाद है, लेकिन इस लेख का विषय इसके कारणों का विश्लेषण नहीं है.
चीनी लोग, चाहे वे चीन में रहते हों या दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बसे हों (अमेरिका में उनकी बस्तियों को चाइना टाउन कहा जाता है), साफ-सफाई और व्यवस्था का ध्यान रखते हैं तथा उनमें अपने आस-पास के प्रति आदर या कम-से-कम कुछ लगाव की भावना होती है.
हमारे इलाकों में यह बात नहीं है, और इसकी पुष्टि कोई भी पर्यवेक्षक कर सकता है. इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि कानून एक हद तक ही मददगार हो सकते हैं. अगर सिंगापुर की स्वच्छता ली क्वान यू की उपलब्धि थी, तो हांगकांग की साफ-सफाई और व्यवस्था का श्रेय किसको दिया जाना चाहिए? वहां भी चीनी बड़ी संख्या में रहते हैं और वहां भी सिंगापुर की तरह अधिनायकवादी शासन है.
दूसरी बात यह है कि संसद में पेश होनेवाला यह कानून क्या सचमुच नया है? पिछले कुछ महीनों की खबरों पर ही नजर डालें, तो पायेंगे कि अमृतसर नगर निगम ने सड़कों पर कूड़ा फैलानेवालों को मौके पर ही दंडित करने का निर्णय लिया है. ‘ट्रिब्यून’ अखबार के अनुसार, ‘इस नियम में मौके पर ही जुर्माना वसूलने का प्रावधान है, पर यह फैसला भी लिया गया है कि दोषी को अदालत में भी हाजिर होना पड़ेगा.’
पिछले साल इस बात की घोषणा की गयी थी कि रेलवे स्टेशनों या ट्रेनों में गंदगी फैलानेवालों पर पांच हजार रुपये तक का जुर्माना लगाया जायेगा. भारतीय ट्रेनें दुनिया की सबसे गंदी ट्रेनों में से हैं. उधर, दिल्ली नगर निगम ने भी पिछले साल अगस्त में गंदगी फैलाने पर मौके पर ही पांच सौ रुपये के अर्थदंड की घोषणा की थी.
2010 में ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’अखबार ने सड़कों पर थूकने, गंदगी फैलाने और पेशाब करने की समस्याओं से निपटने के लिए एक कानून की चर्चा की थी, जिसमें मौके पर ही पांच सौ रुपये तक के जुर्माने की बात कही गयी थी. इसलिए फिर से एक नये कानून का प्रस्ताव सही प्रतीत नहीं होता है. तो सरकार को फिर क्या करना चाहिए?
समस्या यह है कि सरकार कानून की सहायता से सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव लाना चाहती है.क्या उसे ऐसा करना चाहिए? इस सवाल का जवाब हां है, क्योंकि हम कह सकते हैं कि कन्या भ्रूण हत्या और दहेज हत्या भी सामाजिक बुराई हैं और उनको रोकने के लिए कड़े कानून की जरूरत है. लेकिन, ये हत्या के मामले भी तो हैं और इनसे उस हिसाब से भी तो निपटा जा सकता है.
लेकिन ‘स्वच्छ भारत अभियान’ क्या है, इसे लेकर अब भी एक तरह से भ्रम की स्थिति है और इससे कौन सा लक्ष्य हासिल करने का इरादा है, इसका अंदाजा उससे निकलते संकेतों से लगाया जा सकता है. प्रधानमंत्री ने खुद झाड़ू उठा कर और कई जगहों की सफाई कर एक उदाहरण पेश करने की कोशिश की है.
(हालांकि, खबरों के अनुसार वे सारी जगहें करीब एक हफ्ते में फिर से गंदगी से भर गयी थीं.) इस बारे में उन्होंने जो ट्वीट किये, वे उन प्रसिद्ध व्यक्तियों को बधाई देने भर है, जिन्होंने एक दिन झाड़ू उठा कर इस अभियान में हिस्सा लिया था. दूसरी ओर सरकारी विज्ञापनों में कहा गया है कि स्वच्छ भारत अभियान ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय बनाने के बारे में है और उसके लक्ष्य संख्या में उल्लिखित किये गये हैं.
मुङो लगता है कि मोदी ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को गांधीवादी तरीके से संचालित करना चाहते हैं. हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का सामना करने का इरादा नेक और महत्वाकांक्षी काम है. गांधी ने यह काम निरंतर अपने व्यक्तिगत उदाहरण के द्वारा किया, जैसे- अपना शौचालय साफ करना और अपने कपड़े बुनना. मोदी यही काम सरकार के जरिये करना चाहते हैं.
नि:संदेह गांधी असफल हुए. कोई भारतीय अपना शौचालय स्वयं साफ नहीं करेगा, जब तक कि कोई और इस काम के लिए उपलब्ध है, और खादी तो बीते हुए कल की बात हो चुकी है.
तो, क्या मोदी को कामयाबी मिल सकेगी? नहीं, वे भी असफल होंगे, क्योंकि सांस्कृतिक बदलाव पूरी तरह से कानून से नहीं आता और रातों-रात तो कभी नहीं आता. यह हमारे अंदर से आता है और इसे गांधी समझते थे.
भारतीयों में मोदी की छवि बहुत सकारात्मक है और उनके व्यक्तिगत उदाहरण से निश्चित ही प्रभाव पड़ेगा. अगर वे अपने इरादों को लेकर गंभीर हैं, तो उन्हें इसी पर ध्यान देना चाहिए. उनके जीवनकाल में तो बदलाव नहीं आ सकेगा, जैसे कि गांधी भी ऐसा नहीं कर सके, परंतु यह प्रस्तावित कानून की तुलना में अधिक प्रभावी होगा.