इतने दिन कहां था राजनीतिक नेतृत्व!

मुजफ्फरनगर में फैली सांप्रदायिक हिंसा की आग धीरे–धीरे ठंडी हो रही है. इसके साथ ही वहां राजनीतिक चेहरों के नमूदार होने का सिलसिला शुरू हो गया है. रविवार को बारी आयी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की, जिन्हें वहां जनता का गुस्सा भी झेलना पड़ा. इसी कड़ी में सोमवार को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 17, 2013 4:51 AM

मुजफ्फरनगर में फैली सांप्रदायिक हिंसा की आग धीरेधीरे ठंडी हो रही है. इसके साथ ही वहां राजनीतिक चेहरों के नमूदार होने का सिलसिला शुरू हो गया है. रविवार को बारी आयी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की, जिन्हें वहां जनता का गुस्सा भी झेलना पड़ा.

इसी कड़ी में सोमवार को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी सुरक्षा के व्यापक इंतजामों के बीच मुजफ्फरनगर पहुंचे. तीनों ने पीड़ित परिवारों का हालचाल जाना. उन्हें न्याय का भरोसा दिया. एक लोकतांत्रिक देश अपने नेताओं से अपेक्षा करता है कि वह जनता की दुखतकलीफों को सुनेसमझे. संकट के क्षण में उनके साथ खड़ा नजर आये.

राज्य और केंद्र के शीर्ष नेतृत्व के इन दौरों को लोकतांत्रिक जिम्मेवारी निभाने के तौर पर देखा जा सकता है. लेकिन, क्या ये दौरे काफी हैं? ऐसा क्यों है कि ऐसी घटनाओं के बाद नेताओं के दौरे हमें रस्म अदायगी और पीड़ितों के प्रति दिखावटी प्रेम ज्यादा नजर आते हैं? दरअसल, हमारा राजनीतिक नेतृत्व सांप्रदायिक दंगों को एक सामाजिक त्रसदी के तौर पर देखने की जगह, उसे राजनीतिक प्रिज्म से देखता है.

अगर ऐसा नहीं होता, तो नेताओं के ये दौरे कई दिन पहले होते. कुछ उस तरह, जैसे देश के विभाजन के वक्त सांप्रदायिक दंगे की आग को शांत करने के लिए 78 वर्ष के महात्मा गांधी अकेले निकल पड़े थे. उनके साथ प्रशासनिक अमला था, ही उनकी सुरक्षा के लिए अर्धसैनिक बलों की टुकड़ी थी. जब देश आजादी की ओर बढ़ रहा था, गांधीजी नोआखली में थे.

क्यों? क्योंकि, वह समझते थे कि सांप्रदायिक उन्माद में इनसानी जान का जाना, मानवता के लिए सबसे बड़ा कलंक है. वे हर जान को कीमती मानते थे. क्या आज के राजनीतिक नेतृत्व को भी मुजफ्फरनगर का दौरा तब नहीं करना चाहिए था, जब वहां लोगों की जानें जा रही थीं? जिन परिवारों ने दंगे के जख्म सहे हैं, उनके घावों को शायद सिर्फ वक्त ही भर सकता है. राजनीतिक नेतृत्व लोगों के दिलों पर मरहम जरूर लगा सकता है, बशर्ते उसके प्रयासों में ईमानदारी झलके. फिलहाल, मुजफ्फरनगर में राजनीतिक दौरों के सिलसिले को रस्म अदायगी से ज्यादा शायद ही कुछ कहा जा सकता है.

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