भारतीयों के बुरे दिन बिला गये!

गरीबों के कल्याण के नाम पर जो पैसे पहले मिला करते थे, उनमें कटौती की जाये और ‘धन्नासेठों’ के स्वागत में टैक्स में छूट की कालीन बिछायी जाये, तो इस विश्वासघात को क्या कहियेगा? यह घोटाला है कि नहीं? चुप्पी की राजनीति यों तो बड़बोलेपन की राजनीति के एकदम उलट है, लेकिन नेतृत्व की इन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 28, 2015 5:59 AM

गरीबों के कल्याण के नाम पर जो पैसे पहले मिला करते थे, उनमें कटौती की जाये और ‘धन्नासेठों’ के स्वागत में टैक्स में छूट की कालीन बिछायी जाये, तो इस विश्वासघात को क्या कहियेगा? यह घोटाला है कि नहीं?

चुप्पी की राजनीति यों तो बड़बोलेपन की राजनीति के एकदम उलट है, लेकिन नेतृत्व की इन दो युक्तियों के फायदे कमोबेश एक से हैं. हर बात पर चुप्पी साध लेनेवाला नेतृत्व जरूरी सवालों के जवाब देने से बच जाता है. उसे पक्का भरोसा होता है कि सवाल पूछनेवाला आखिरकार थक-हार कर मुंह खोलना ही बंद कर देगा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व की यही शैली थी. उन्होंने अपनी चुप्पी को दर्शन की ऊंचाई देते हुए कहा कि ‘हजार जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी.’ दूसरी ओर, बड़बोलेपन वाला नेतृत्व भी जरूरी सवालों को सुनने से इनकार करता है. इस नेतृत्व को हमेशा आशंका घेरे रहती है कि कहीं किसी ने एकदम से जरूरी सवाल पूछ लिया, तो मान बचाना मुश्किल हो जायेगा. इस आशंका से लड़ते रहने के कारण यह नेतृत्व हमेशा आक्रामक मुद्रा बनाये रहता है और शोर मचाता है. वह शोर को अपना हथियार बना लेता है. शोर में सवाल दब जाते हैं. शोर मचा कर जरूरी सवालों को दबाने की शैली मोदी सरकार की है.

एनडीए के सत्ता संभालने के साल पूरे होने के जश्न में यही हुआ. हफ्ते भर पहले से सरकार के मंत्रियों ने बताना शुरू किया कि बीते 355 दिनों में इतने काम किये हैं इस सरकार ने कि अगले 365 दिन भी उन्हें गिनाने के लिए कम पड़ जायेंगे. जोर दो बातों पर दिया गया. एक तो यह कि यह सरकार गरीबों की बड़ी फिक्र करती है और दूसरा यह कि विदेश में भारत के ताकत की धाक जम गयी है. अपने को गरीबों का फिक्रमंद साबित करने के लिए सरकार ने बीमा योजना और पेंशन योजना को प्रमाण स्वरूप पेश किया, तो विदेशों में भारत की साख और धाक जमाने के प्रमाण के रूप में प्रधानमंत्री के विदेश दौरों को. अब इस सरकार को कौन बताये कि लोगों के कफन में जेब तो होती नहीं कि वे मरने पर बीमा के लाख-दो लाख रुपये सुरधाम लेते जायेंगे! और साल भर में वैसा सतयुग भी नहीं आया है कि जिसके बूते यह सपना पाला जाये कि हजार से दो हजार रुपये की पेंशन पर साठ की उम्र से दूध, दवा और दुआ की बैसाखी पर लटका बुढ़ापा कट जायेगा.

साल पूरे होने के जश्न के चौबीस घंटे के भीतर एक खबर चीन के मोरचे से भी आयी. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से चीन की सरकार ने कह दिया कि भई, हम तो ‘मैकमोहन रेखा’ को मानते ही नहीं. चीनी सरकार की भाषा में मैकमोहन रेखा को नहीं मानने का मतलब होता है, अरुणाचल प्रदेश को तिब्बत का हिस्सा मानना और तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग करार देना. तो इस तरह विदेश में जमते भारत के धाक की पोल ऐन पड़ोस में ही खुल गयी. फिर भी हमने प्रधानमंत्री को ललकारते सुना कि बुरे दिन तो बिला गये. उनकी ललकार के बीच यह सवाल तो सुनायी ही नहीं दिया कि आखिर वे अच्छे दिन कहां गये, जिनका वादा था!

मान लेते हैं कि बुरे दिन दफा हुए और यह विश्वास भी पाल लेते हैं कि अगले चार वर्षो में अच्छे दिन भी आ जायेंगे. लेकिन, सवाल तो यही है कि ये अच्छे दिन उन सवा सौ करोड़ हिंदुस्तानियों के होंगे, या चंद अनिवासी भारतीयों और भारतवंशी विदेशियों के, जिनके शब्दकोश में हिंदुस्तान का अर्थ वीजा, पासपोर्ट और निवेश-व्यापार में मिलनेवाली आकर्षक छूट होता है? आप यह सवाल नहीं पूछ सकते, क्योंकि इस सवाल को खोलने-खंगालनेवाली दो संस्थाओं केंद्रीय सतर्कता आयोग और केंद्रीय सूचना आयोग के प्रधान की नियुक्ति ही नहीं हो पायी है. और, क्यों विश्वास कर लिया जाये कि बुरे दिन बिला गये? क्या बड़े घोटालों का न होना भर इसका पुख्ता प्रमाण मान लिया जाये? गरीबों के कल्याण के नाम पर जो पैसे पहले मिला करते थे, उनमें कटौती की जाये और ‘धन्नासेठों’ के स्वागत में टैक्स में छूट की कालीन बिछायी जाये, तो इस विश्वासघात को क्या कहियेगा? यह घोटाला है कि नहीं?

विश्वास के इस घोटाले पर खुद प्रधानमंत्री के सहयोगी तक नाराज हैं. सरकार के एक साल पूरा होने के मात्र एक महीने पहले मेनका गांधी ने केंद्रीय वित्त मंत्री को चिट्ठी लिखी कि समाज-कल्याण की योजनाओं में फंड की कटौती से करीब तीन करोड़ गरीबों पर मार पड़ेगी, बच्चों के कुपोषण, गर्भवती व दूध पिलानेवाली माओं के पोषाहार से जुड़े प्रमुख कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना असंभव होगा. हमारे नेशनल न्यूट्रिशन मिशन को पांच साल के लिए 28 हजार करोड़ रुपये की जरूरत है, जबकि इस साल बजट में आबंटन मात्र 100 करोड़ रुपये का हुआ है. वित्त मंत्री को इस फंड कटौती का कोई अफसोस नहीं है. वे सरकार के साल पूरा होने के जश्न के ठीक बीस दिन पहले राज्यसभा को सगर्व बता रहे थे कि कॉरपोरेटी जमात पर टैक्स में छूट और प्रोत्साहन के नाम पर बीते वित्त वर्ष में 62 हजार करोड़ रुपये न्यौछावर किये गये हैं. अच्छा होता अगर प्रधानमंत्री मोदी ‘बुरे दिन बिला गये’ वाले भाषण में विश्वास के घोटालों के बारे में भी कुछ कहते!

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

chandanjnu1@gmail.com

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