राजनीति के तराजू पर चुनावी बाट

।।दीपक कुमार मिश्र।।(प्रभात खबर, भागलपुर)हर कंपनी अपना प्रोडक्ट तभी बाजार में उतारती है, जब उसका पूरा फीडबैक ले लेती है. इसी तरह सरकारें कोई भी निर्णय लेने के पहले उसका चुनावी गुणा-भाग कर लेती हैं. जिस दल की सरकार होती है, वह अपने फैसले का कितना चुनावी लाभ उठा पायेगी, इसका पूरा होमवर्क होता है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 19, 2013 2:28 AM

।।दीपक कुमार मिश्र।।
(प्रभात खबर, भागलपुर)
हर कंपनी अपना प्रोडक्ट तभी बाजार में उतारती है, जब उसका पूरा फीडबैक ले लेती है. इसी तरह सरकारें कोई भी निर्णय लेने के पहले उसका चुनावी गुणा-भाग कर लेती हैं. जिस दल की सरकार होती है, वह अपने फैसले का कितना चुनावी लाभ उठा पायेगी, इसका पूरा होमवर्क होता है. फिर जाकर उस फैसले का एलान किया जाता है. लोकसभा चुनाव की आहट अब शुरू हो गयी है. हर दल अपना कील-कांटा दुरुस्त करने में जुट गया है. केंद्र हो या राज्य, चाहे जिस दल की सरकार हो, वह चुनाव को केंद्र में रख कर ही निर्णय लेगी और ले रही है.

हालांकि सरकार दुर्गासप्तशती के संपुट पाठ की तरह आगे-पीछे इस तरह का श्लोक जोड़ना नहीं भूलती है कि समाज में बराबरी और विकास को ध्यान में रख कर यह निर्णय लिया जायेगा. सरकार के इस फैसले का सामाजिक विकास की दिशा में दूरगामी प्रभाव पड़ेगा. अभी बिहार कैबिनेट ने फैसला लिया है कि हर स्कूल में शिक्षा समिति का फिर से गठन होगा और समिति के अध्यक्ष वार्ड पार्षद होंगे. सरकार के निर्णय पर मुङो कुछ नहीं कहना है, लेकिन आपको एक उदाहरण देता हूं. मेरे गांव के स्कूल में भी वार्ड पार्षद की अध्यक्षता में शिक्षा समिति का गठन होगा. जबकि उनका शिक्षा से दूर-दूर का नाता नहीं है.

गांव में कहा जाता है कि वार्ड पार्षद बनने के बाद उन्होंने किसी तरह सिर्फ अपना नाम लिखना सीखा. यह तो एक उदाहरण है. ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है. जिस व्यक्ति का शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं है, वह शिक्षा समिति का अध्यक्ष होगा. उसके नीचे पढ़े-लिखे लोग शिक्षा समिति में होंगे. यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बिडंबना है कि आजादी के इतने दिनों के बाद भी जनप्रतिनिधियों के लिए शिक्षित होने की बाध्यता नहीं बनी है. अपराधी संसद, विधानसभा में हमारे नुमाइंदे नहीं बनें, इसकी कवायद विभिन्न स्तरों पर हो रही है और होनी भी चाहिए, लेकिन शिक्षित लोग ही सदन में जायें, इसकी कोई कवायद नहीं हो रही है.

कोई सरकार टैबलेट बांट रही है, तो कोई लैपटॉप. ईमानदारी की बात करें, तो किसी सरकार को बेहतरी से मतलब नहीं है, बस उसे मतलब है कि कैसे हम फायदे में रहें. बिहार सरकार ने लड़कियों को स्कूल जाने के लिए साइकिल दे रखी है. सरकार के इस सार्थक कदम की सभी स्तर पर सराहना हो रही है. पिछले चुनाव में एक दल ने घोषणा कर दी कि वह मोटरसाइकिल देंगे. असल में सरकार जिसे अनुदान या उपहार कहती है, असल में वह उधार है. सरकारें उधार दे रही हैं और आप सूद-मूल के रूप में वोट दीजिए. जबकि, होना तो यह चाहिए कि हम इतना सक्षम समाज बना दें जिससे उसे उधार या अनुदान की जरूरत ही न रहे. असल में सरकारें राजनीति के तराजू पर चुनावी बाट रख कर फैसला ले रही हैं और इससे समाज को कुछ खास हासिल नहीं होने वाला है.

Next Article

Exit mobile version