डॉ अनंत सदाशिव अलतेकर

।।सुरेंद्र किशोर।।(वरिष्ठ पत्रकार)महात्मा बुद्घ का शारीरिक भस्मावशेष इन दिनों पटना म्यूजियम में रखा हुआ है. इसे वैशाली में 1958 में प्राप्त किया गया था. बिहार सरकार का फैसला है कि इसे वैशाली में एक म्यूजियम बना कर उसमें रखा जायेगा. पटना से वैशाली ले जाने की मांग को लेकर कुछ साल पहले एक लंबा विवाद […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 16, 2013 1:35 PM

।।सुरेंद्र किशोर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
महात्मा बुद्घ का शारीरिक भस्मावशेष इन दिनों पटना म्यूजियम में रखा हुआ है. इसे वैशाली में 1958 में प्राप्त किया गया था. बिहार सरकार का फैसला है कि इसे वैशाली में एक म्यूजियम बना कर उसमें रखा जायेगा. पटना से वैशाली ले जाने की मांग को लेकर कुछ साल पहले एक लंबा विवाद चला था. लेकिन इस विवाद से परे यह जानना जरूरी होगा कि इसका पता किसने लगाया था? उनका नाम है डॉ अनंत सदाशिव अलतेकर.

अलतेकर काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान के निदेशक व पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति विभाग के प्रोफेसर रह चुके थे. उससे पहले वे बीएचयू में पढ़ाते थे. पटना विवि में विभिन्न विषयों में तब बाहर से विद्वान अध्यापकों को बुलाया जाता था. डॉ श्रीकृष्ण सिंह और डॉ राजेंद्र प्रसाद के प्रयास से डॉ अलतेकर को पटना विवि में अध्यापन कार्य सौंपा गया था. प्राचीन इतिहास के शोध क्षेत्र में अलतेकर का बड़ा योगदान रहा. पटना स्थित काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान अलतेकर के जीवन और उनके कार्यो पर डॉ व्रजदेव प्रसाद राय लिखित पुस्तक प्रकाशित कर चुका है.

अलतेकर के बारे में विजय कुमार चौधरी ने लिखा है कि प्राचीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व के बहुविध आयामों को उजागर करने के लिए जिन विद्वानों ने सारा जीवन लगा दिया उनमें स्वर्गीय अलतेकर अग्रगण्य थे. उनका व्यक्तिगत जीवन जितना सादगीपूर्ण था, उससे भी अधिक उनकी दृष्टि सूक्ष्म तत्व विवेचनी थी. वे व्यक्ति नहीं वरन संस्था थे. वे भारतीय मुद्रा परिषद के पर्याय बन चुके थे. पुरातत्व के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों के कारण उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली. वे काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान के संस्थापक निदेशक थे. उनके संपादकत्व में महत्वपूर्ण तिब्बती पांडुलिपियों का अंग्रेजी अनुवाद का प्रकाशन हुआ.

अलतेकर का जन्म 24 सितंबर, 1898 और उनका निधन 25 नवंबर, 1959 को हुआ. अलतेकर का जन्म महाराष्ट्र के कोल्हा पुर जिले के अलते गांव में देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता वकील और स्वतंत्रता सेनानी थे. वे एक तेजस्वी विद्यार्थी थे. 1917 में आइए की परीक्षा में उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में पहला स्थान प्राप्त किया था. अलतेकर प्रशासनिक सेवा के लिए भी चुने गये थे. बाल गंगाधर तिलक ने उन्हें सलाह दी थी कि वे अध्ययन-अध्यापन के काम में लगें, क्योंकि आजादी के बाद अच्छे अध्यापकों की इस देश को जरूरत होगी. महामना मदन मोहन मालवीय ने अलतेकर की विद्वता के संबंध में सुन रखा था. उन्हें बीएचयू में संस्कृत पढ़ाने के लिए नियुक्त किया. अलतेकर ने अन्य पुरातात्विक महत्व के स्थलों के साथ-साथ सिंधु घाटी का भी भ्रमण किया था. प्राच्य विद्या की लगभग सभी मुख्य शाखाओं में अलतेकर का योगदान था. उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं.

अलतेकर ने 1949 में पटना विवि में योगदान किया. उन्होंने विभाग में पुस्तकालय की स्थापना की. साथ ही उन्होंने प्राचीन भारतीय मुद्राओं का संकलन किया. डॉ एस राधाकृष्णन की सलाह पर पटना में प्राचीन इतिहास व संस्कृति विभाग की स्थापना की गयी थी. 1957 में अलतेकर ने जायसवाल शोध संस्थान में पूर्णकालिक निदेशक के रूप में योगदान किया. उन दिनों जगदीश चंद्र माथुर बिहार के शिक्षा सचिव थे. माथुर ने लिखा है कि मूल रूप से अध्यापक होने के बावजूद डॉ अलतेकर में शासकीय और व्यवस्था संबंधी सूझबूझ भी थी. व्यवस्था की त्रुटियों को वे वैसे ही पकड़ लेते थे जितना कोई कुशल सरकारी कर्मचारी पकड़ने में सक्षम होता है. गहन विषयों पर विचार विमर्श करते समय भी कभी वे उतावले नहीं होते थे.

असंतुष्ट होने पर भी वे अपने भावों को अतिरंजना के साथ व्यक्त नहीं करते थे. उनकी शिकायतों में भी हास्य होता था. डॉ अलतेकर ने पुरातात्विक महत्व के स्थल कुम्हरार, चिरांद और गया जिले के सोनपुर में महत्वपूर्ण काम किये. उन्होंने 1956 में सोनपुर में उत्खनन के जरिये जो सबूत हासिल किये, उसके जरिये बिहार के इतिहास की प्राचीनता छठी सदी ईसा पूर्व से बढ़कर 1000 वर्ष ईसा पूर्व तक चली गयी. इस तरह डॉ अलतेकर के कामों का बड़ा महत्व है.

अलतेकर का विवाह सत्यभामा से हुआ था. वह एक आदर्श पत्नी थीं. इनकी सात संतानें हुईं. चार पुत्र और तीन पुत्रियां. उनके एक पुत्र मुकुंद अनंत अलतेकर बिहार राज्य बिजली बोर्ड की नौकरी से सेवा निवृत हुए.

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