केंद्र सरकार ने बढ़ते राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए सरकारी खर्च में कतर–ब्योंत की कवायद शुरू की है. इस कड़ी में वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने केंद्र सरकार के विभागों को अपने खर्चे पर लगाम लगाने की ताकीद की है.
उनकी सलाह है कि हवाई यात्रा करें, लेकिन महंगे एग्जीक्यूटिव क्लास से नहीं. पांच सितारा होटलों में बैठकें न करें. सरकारी विभागों से नयी नियुक्तियां न करने को भी कहा गया है. सरकार को उम्मीद है कि विकराल रूप धारण कर रहे राजकोषीय घाटे पर इन उपायों के सहारे काबू पाया जा सकेगा और उसे 4.8 फीसदी के ‘कंफर्ट जोन’ में रखा जा सकेगा. सरकार की ये कोशिशें एक स्तर पर स्वागतयोग्य हैं.
इन उपायों में यह भाव छिपा है कि देश आर्थिक संकट से दोचार है. इससे निबटने के लिए सबसे पहले जरूरी है कि अपनी शाही जीवनशैली को सुधारा जाये. ‘आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया’ की सरकारी आदत का त्याग किया जाये. लेकिन, यहीं यह सवाल मन में उठना लाजिमी है कि अब तक सरकारी बाबुओं को फिजूलखर्ची की इजाजत किसने और क्यों दी थी?
चिदंबरम के सुझाव का यह हिस्सा गौर करने लायक है कि खर्च में कटौती ‘सरकारी कार्यकुशलता से समझौता किये बगैर’ की जाये. इस सुझाव का सीधा अर्थ यह निकाला जा सकता है कि अब तक सरकारी महकमों में हो रहे खर्चे का संबंध कामकाज की दक्षता से न होकर, वास्तव में सरकारी पैसे के दुरुपयोग की पुरानी आदत से है.
अगर खर्च का तार्किकीकरण करके गैर योजनागत व्यय में दस फीसदी की भारी कटौती की जा सकती है, तो यह सवाल पूछा जाना जरूरी है आर्थिक प्रबंधकों को सरकारी पैसे का यह दुरुपयोग अब तक नजर क्यों नहीं आया था और इस दिशा में कोई ठोस पहल पहले क्यों नहीं की गयी? आर्थिक प्रबंधन का पहला सिद्धांत ‘न्यूनतम लागत में अधिकतम लाभ’ हासिल करना है.
अंगरेजी में इसे ‘वर्क एफिशिएंसी’ कहा जाता है. लेकिन भारत में सरकारी कामकाज में ‘एफिशिएंसी’ पर जोर शायद संकट के समय में ही दिया जाता है. घाटे को पाटने की ये कोशिशें कितनी कामयाब हो पाती हैं, यह तो वक्त ही बतायेगा, लेकिन इसने अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट के एक बड़े कारण की ओर इशारा करने का काम जरूर किया है.