अच्छे दिनों की बंधती उम्मीदों के बीच
।। अरविंद मोहन ।। वरिष्ठ पत्रकार अमेरिका व यूरोप का संकट फिलहाल समाप्त होता लग रहा है. ऐसे में भारत के लिए अवसर बनेंगे–पूंजी आकर्षित करने के लिए भी और अच्छी विकास दर पा लेने के लिए भी. उनके यहां हालात सुधरने से हमारी सेवा व सामानों की मांग बढ़ेगी. अब इसे संयोग मानें या […]
।। अरविंद मोहन ।।
वरिष्ठ पत्रकार
अमेरिका व यूरोप का संकट फिलहाल समाप्त होता लग रहा है. ऐसे में भारत के लिए अवसर बनेंगे–पूंजी आकर्षित करने के लिए भी और अच्छी विकास दर पा लेने के लिए भी. उनके यहां हालात सुधरने से हमारी सेवा व सामानों की मांग बढ़ेगी.
अब इसे संयोग मानें या कुछ और, बीते कई सत्रों से विधायी कामकाज के मामले में फिसड्डी रहनेवाली हमारी संसद जब मॉनसून सत्र के लिए बैठी थी, रुके फैसलों, लटके कानूनों और जैसे–तैसे लाये गये अध्यादेशों के बोझ को सिर्फ अर्थव्यवस्था ही नहीं, सारा मुल्क महसूस कर रहा था.
सरकार पर फैसले लेने का दबाव था, तो विपक्ष पर भी हंगामा की जगह सहयोग करने का. मीडिया व अदालतों की संजीदगी के साथ–साथ खुद अर्थव्यवस्था ने भी संबद्ध पक्षों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था. डॉलर का चढ़ना, शेयर बाजार का गिरना, तेल की कीमतें चढ़ना और सर्राफा बाजार की तेजी वैसे–वैसे ही बढ़ती गयी, जैसे–जैसे सरकार और रिजर्व बैंक ने स्थिति को सुधारना चाहा.
लेकिन करीब महीने भर का सत्र बीता नहीं कि हवा बदल गयी लगती है. अर्थव्यवस्था के ताजा संकेत बता रहे हैं कि हम अपने सबसे बुरे दौर को पार कर चुके हैं. अच्छा वक्त अभी आया हो या नहीं, पर संसद में मॉनसून सत्र के दिनों जैसा हाल अब नहीं रहा.
तब रोज शेयर बाजार गिरने, सोने और डॉलर का रेट चढ़ने की खबरें शासन में बैठे लोगों के लिए ही नहीं, हमारे–आपके लिए भी आतंक पैदा कर रही थीं. आज अर्थव्यवस्था में ठोस वास्तविकताओं के अलावा धारणा और मनोवैज्ञानिक स्थिति का भी पर्याप्त महत्व है. अब ठोस आंकड़े और जमीनी हकीकत भले बहुत न बदली हो, लेकिन मनोवैज्ञानिक माहौल बदल चुका है.
आज महंगाई बढ़ने और प्याज की कीमतें आसमान छूने या खनन व्यवसाय में दो फीसदी की कमी की खबरें वैसा खौफ पैदा नहीं कर रहीं. चालू खाते का घाटा कुछ हद तक नियंत्रण में आ गया है. निर्यात बढ़ने के लक्षण दिखने लगे हैं और सोने पर सख्ती से आयात में कमी दिखी है. बड़े बदलाव के रूप में औद्योगिक उत्पादन और बिजली समेत संरचना क्षेत्र में सुधार के लक्षण दिख रहे. सब्जियों के दाम अब भी बेलगाम हैं, लेकिन यह सीजनल भी है.
अब जो बदलाव रोज और साफ दिख रहा है वह है शेयर बाजार में सुधार, सोने के दाम वास्तविक स्तर पर आना और डॉलर की तेजी पर ब्रेक. आश्चर्य की बात है कि यह काफी कुछ रिजर्व बैंक के नये गवर्नर रघुराम राजन के आने के बाद से हुआ है.
रघुराम ने आने से पहले कहा था कि मेरे हाथ में जादू की छड़ी नहीं है, लेकिन उनके आने का अब तक का असर जादू की छड़ी घुमाने जैसा ही दिख रहा है. इधर कर वसूली में कमी की बात कही जा रही है, तो सीमा शुल्क की वसूली जबरदस्त वृद्धि के संकेत भी हैं. असल में डॉलर की महंगाई से आयातित चीजें महंगी हुई हैं, तो उन पर कर वसूली भी बढ़ ही जाती है.
जब हिंदुस्तानी श्रम और सामान डॉलर की महंगाई के चलते सस्ता होगा, तो हमारा आर्डर बढ़ेगा ही. हालांकि सोने के गहनों के आयात पर सीमा शुल्क को सीधे 15 फीसदी करना उदारीकरण के पहले के दिनों की याद दिला रहा है. इधर अच्छे मॉनसून का प्रतिफल भी आने ही वाला है और रिकार्ड पैदावार की खबर से भी अर्थव्यवस्था के सभी सेक्टर निहाल हैं. इससे किसी को मांग बढ़ने की उम्मीद है, तो किसी को खपत बढ़ने की.
अब तक जिस नीतिगत जड़ता की बात की जा रही थी, वह हाल में कैबिनेट द्वारा लिये फैसलों और संसद के मॉनसून सत्र में पास कानूनों से काफी हद तक दूर हो गयी है. जिसे ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ कहा जा रहा था, वह अर्थव्यवस्था से अपनी कीमत वसूल चुका है. अब ज्यादा शोर निहित स्वार्थ के चलते भी हो सकता है.
स्टैंडर्ड एंड पूअर्स की रेटिंग का मामला सरकार द्वारा लिये कई फैसलों– जिनमें वोडाफोन से बकाया कर वसूलना, शेयर निवेश में साफ धन संबंधी सख्ती करना और पार्टिशिपेटरी नोट संबंधी फैसले की पहल शामिल हैं– से भी जुड़ा हो सकता है, क्योंकि ये एजेंसियां दबाव बनाने का खेल खेलती रही हैं.
दूसरे चरण के फैसले किसी षड्यंत्र से नहीं रुके थे. अमेरिका और यूरोप के संकट का भी इससे लेना–देना है. हम आंख मूंद कर फैसले नहीं ले सकते. खुद कांग्रेस और सरकार के अंदर दो तरह के विचार साफ दिखते हैं. औद्योगिक उत्पादन की गिरावट और महंगाई ने सरकार और हम सबको पिछले तीन वर्षो से रुला रखा है, लेकिन वह खुद–ब–खुद मैदान छोड़ती नजर आ रही है.
खुद–ब–खुद इसलिए कि सरकार और रिजर्व बैंक जो उपाय कर रहे थे उनका तो असर दिखा नहीं, खेती और बंपर पैदावार ने जरूर संकट को कम किया है. यह अलग बात है कि भारी पैदावार करके किसान खुद मुश्किल में फंस गया है. आने वाले वर्ष में अगर विश्व बाजार में तेजी नहीं रही तो किसान ही मरेगा.
पर अच्छी फसल ने रिजर्व बैंक को जरूर अब यह आजादी दे दी है कि वह बैंक दरों में नरमी लाकर उद्योग जगत और आम उपभोक्ताओं को राहत दे सके. बैंक ने सूद की दर और वैधानिक तरलता अनुपात में कमी करके दूसरे बैंकों को राहत देने की शुरुआत कर भी दी है. उम्मीद करनी चाहिए कि जल्दी ही महंगे कर्ज से उद्योगों और उपभोक्ताओं दोनों को राहत मिलेगी और विदेश की चिंता छोड़ कम से कम देसी उत्पादन और मांग की स्वाभाविक चिंता शुरू होगी.
अमेरिका व यूरोप का संकट फिलहाल समाप्त होता लग रहा है. ऐसे में भारत के लिए अवसर बनेंगे–पूंजी आकर्षित करने के लिए भी और अच्छी विकास दर पा लेने के लिए भी. उनके यहां हालात सुधरने से हमारी सेवा व सामानों की मांग बढ़ेगी. भारत के लिए बेहतर अवसर बनने का एक कारण हमारे रुपये का गिरना भी हो सकता है.
असल में हाल के दिनों में रुपया डॉलर के मुकाबले गिरा है, लेकिन जापानी येन और चीनी युआन चढ़े हैं. जाहिर है कि इस चलते हमारा माल विदेशों में सस्ता पड़ेगा, जबकि चीनी और जापानी माल महंगे हो गये हैं.
और हमारा बाजार, खास तौर से ग्रामीण बाजार जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह भी उम्मीद जगाता है. आज आधा दो पहिया वाहन ग्रामीण बाजार में बिकता है. फोन का साठ फीसदी, फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स का चालीस फीसदी और सोना का साठ फीसदी इसी बाजार में खप रहा है और इसका विकास बहुत तेज है.
2008 से लेकर अब तक जब पूरी दुनिया मंदी के दो दौर ङोल चुकी है, हमारा बाजार 43 फीसदी से ज्यादा बढ़ चुका है. चीन विकास दर के मामले में हमसे आगे रहा है, पर हमारी विकास दर में स्थानीय मांग का हिस्सा ज्यादा रहा है और यह चीज हमारे विकास को ज्यादा भरोसेमंद बनाती है. हम विकास दर पांच फीसदी होने की भविष्यवाणी करें, यह दुनिया के हिसाब से बुरा नहीं है, पर हम इस साल उससे अच्छे आर्थिक परिणामों की उम्मीद कर सकते हैं.