बढी गरमी के संकेतों को समझना जरूरी
विकास और समृद्ध जीवन-शैली की ललक से पैदा हुए कार्बन उत्सजर्न तथा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को लेकर स्पष्ट समझ और निर्णय की आवश्यकता है. जलवायु परिवर्तन से मानव जाति को बचाने के लिए अब भी हमारे पास समय है. देश के विभिन्न हिस्सों में भीषण गरमी और लू से दो हजार से अधिक […]
विकास और समृद्ध जीवन-शैली की ललक से पैदा हुए कार्बन उत्सजर्न तथा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को लेकर स्पष्ट समझ और निर्णय की आवश्यकता है. जलवायु परिवर्तन से मानव जाति को बचाने के लिए अब भी हमारे पास समय है.
देश के विभिन्न हिस्सों में भीषण गरमी और लू से दो हजार से अधिक मौतें वैश्विक स्तर पर तापमान में हो रही बढ़ोतरी के खतरों की गंभीर चेतावनी है. विशेषज्ञों के अनुसार भारत की स्थिति पृथ्वी के भविष्य का भी चिंताजनक संकेत है.
पिछले 100 वर्षो में विश्व के तापमान में औसतन 0.8 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि को रेखांकित करते हुए दिल्ली-स्थित शोध संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एंवायर्नमेंट ने चेतावनी दी है कि भयंकर लू चलने की अवधि बढ़कर पांच दिन से 30-40 दिन प्रति वर्ष हो सकती है.
पुणो के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटिओरोलॉजी के एक प्रयोग में दिल्ली समेत अनेक शहरों में अल्ट्रा-वायलेट किरणों की उपस्थिति भी औसत से अधिक पायी गयी है. तापमान बढ़ने से मौसम में गरमी के अलावा अन्य तरह के बदलाव भी देखे जा रहे हैं, जैसे- बेमौसम की बरसात, सूखा, बाढ़, मॉनसून में बदलाव आदि. साथ ही, ध्रुवीय बर्फ और ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्री जल-स्तर बढ़ रहा है तथा समुद्रों द्वारा अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड सोखने से उनका जल अधिक खारा होता जा रहा है.
अंटार्टिका के ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्री जल-स्तर में हो रही वृद्धि पर लंबे समय से चिंता जतायी जा रही है. यूरोपियन जियोसाइंस यूनियन के जर्नल क्रायोस्फेयर की एक रिपोर्ट के अनुसार हिंदुकुश-हिमालय क्षेत्र के करीब 5,500 ग्लेशियरों का आकार इस शताब्दी के अंत तक 70 से 99 फीसदी तक घट जायेगा.
इस क्षेत्र में माउंट एवरेस्ट समेत विश्व की कई सबसे ऊंची पर्वत चोटियां हैं. इस परिघटना का सीधा असर भारत समेत दक्षिण एशिया के अनेक देशों के नदी तंत्र और कृषि पर होगा. हालांकि वैज्ञानिकों में एक वर्ग ऐसा भी है, जो बदलते मौसम के तेवर के लिए सीधे तौर पर मानव-सभ्यता के वर्तमान को दोषी नहीं मानता है, परंतु कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनके आधार पर वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का बड़ा समूह वैश्विक सक्रियता की आवश्यकता पर बल देता रहा है.
अमेरिका में जलवायु परिवर्तन के अध्ययन में सैटेलाइट सेंसरों के मापन से पिछले वर्ष यह जानकारी दी गयी थी कि आधी सदी से सूर्य के ऊर्जा-उत्सजर्न में कोई वृद्धि नहीं हुई है. स्पष्ट है कि वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के लिए सूर्य को दोष नहीं दिया जा सकता है. इस अध्ययन में ज्वालामुखी विस्फोटों के असर के तर्क को भी नकार दिया गया था.
रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि अगर मानवीय गतिविधियां वातावरण को दुष्प्रभावित नहीं करतीं, तो तापमान वर्तमान से कम होता. उधर, विभिन्न शोधों के आधार पर पर्यावरण रक्षा के लिए सक्रिय वैश्विक संस्था ग्रीनपीस का कहना है कि मानव-जनित गरमी के कारण लू और गर्म हवाओं का स्तर पांच गुना अधिक है. संस्था ने चेतावनी दी है कि अगर कार्बन उत्सजर्न में कटौती के प्रयास नहीं किये गये, तो 2040 तक लू की भीषणता 12 गुनी अधिक हो सकती है.
इस गंभीर परिस्थिति का सीधा असर खाद्यान्न उत्पादन और श्रम-क्षमता पर होगा तथा हिंसक संघर्षो की घटनाएं बढ़ेंगी. हाल में ‘नेचर क्लाइमेट चेंज’ पत्रिका में प्रकाशित एक आकलन के अनुसार गरमी के कारण वैश्विक श्रम क्षमता वर्ष के सबसे गर्म महीनों में 90 फीसदी के स्तर पर आ चुकी है और जलवायु परिवर्तन की गंभीर चेतावनियों को मानें, तो 2200 तक यह 40 फीसदी के स्तर तक आ सकता है. इस रिपोर्ट में भारत, उत्तरी ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण-पूर्व अमेरिका को सर्वाधिक प्रभावित संभावित क्षेत्रों में रखा गया है. गरमी बढ़ने का एक और गंभीर खतरा पलायन का है.
ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2009 में लगभग 1.7 करोड़ तथा 2010 में 4.2 करोड़ लोग प्राकृतिक संकटों के कारण विस्थापित होने को मजबूर हुए थे. वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो शहर और 2012 में डेनमार्क के कोपेनहेगेन में हुए शिखर सम्मेलनों, 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल तथा अनगिनत पर्यावरण बैठकों के बाद भी जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए कोई ठोस वैश्विक समझ नहीं बन सकी है.
इस वर्ष के अंत में फ्रांस की राजधानी पेरिस में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन प्रस्तावित है, जिसका उद्देश्य आम सहमति से दुनिया के हर देश के लिए वैधानिक रूप से बाध्यकारी उपाय निर्धारित करना है. विकास और समृद्ध जीवन-शैली की ललक से पैदा हुए कार्बन उत्सजर्न तथा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को लेकर स्पष्ट समझ और निर्णय की आवश्यकता है.
जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणामों से मानव जाति को बचाने के लिए हमारे पास अब भी कुछ समय है. आगामी कुछ वर्ष इस लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं और प्रमुख देशों की जिम्मेवारी बहुत बड़ी है.