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भाषा के उत्सव में विद्याधरों की अर्चना

।।डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।(वरिष्ठ साहित्यकार)इसमें संदेह नहीं कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान साहित्यकारों की सेवा में आज जिस मुकाम पर है, वहां तक पहुंचने की कल्पना करना भी अन्य राज्यों की भाषा-साहित्य की संस्थाओं के वश की बात नहीं. हिंदी के सुप्रसिद्ध नवगीतकार ठाकुर प्रसाद सिंह इसे दिन-रात एक करके सींचा है. वह सत्तर का दशक […]

।।डॉ बुद्धिनाथ मिश्र।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
इसमें संदेह नहीं कि उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान साहित्यकारों की सेवा में आज जिस मुकाम पर है, वहां तक पहुंचने की कल्पना करना भी अन्य राज्यों की भाषा-साहित्य की संस्थाओं के वश की बात नहीं. हिंदी के सुप्रसिद्ध नवगीतकार ठाकुर प्रसाद सिंह इसे दिन-रात एक करके सींचा है. वह सत्तर का दशक था. ठाकुर भाई सूचना अधिकारी के रूप में एक कमरे में संस्थान का ताना-बाना बुनते थे. मुख्यमंत्रियों के स्नेह का लाभ उठाते हुए उन्होंने संस्थान को कल्पवृक्ष बनाने का प्रयास किया. उन्होंने देवघर में हिंदी विद्यापीठ के प्राचार्य के रूप में जो उद्यम किया और साहित्यिक वातावरण बनाया, उसे आज भी वहां के साहित्यकार याद करते हैं. वहीं रह कर उन्होंने संताली लोकगीतों के ताप में आदिवासी बिंबोंवाले नवगीतों की सर्जना की थी.

यह ठाकुर भाई का अथक प्रयास ही था, जिससे 30 दिसंबर,1976 को तत्कालीन हिंदी समिति, हिंदी ग्रंथ अकादमी और भाषा संबंधी अन्य शासकीय कार्यक्रमों को समेकित कर हिंदी संस्थान अस्तित्व में आया और इसके प्रथम निदेशक ठाकुर भाई ही बने. वे दो वर्ष तक इस पद पर रहे, मगर इसी अवधि में वे संस्थान की नींव इतनी मजबूत कर गये कि सहित्य-संगीत-कला विरोधी बसपा सरकार के बुरे दौर में भी वह डिगी नहीं. उस समय लखनऊ की भांति ही भोपाल, जयपुर, मुंबई और पटना आदि में राज्य सरकारें हिंदी भाषा और साहित्य के विकास के लिए ठोस काम कर रही थीं. पटना की बिहार राष्ट्रभाषा अकादमी ने हिंदी पुस्तकों के प्रकाशन में कीर्तिमान स्थापित किया था. उसकी देखादेखी उ प्र हिंदी संस्थान ने भी संदर्भ ग्रंथों और कोशों के अलावा विज्ञान, मानविकी, चिकित्सा शास्त्र आदि के मानक ग्रंथों के प्रकाशन का काम हाथ में लिया और अब तक उच्च कोटि के 700 से अधिक ग्रंथ छप चुके हैं, जो सस्ती दर पर उपलब्ध हैं. यह अलग बात है कि समुचित प्रचार और वितरण के अभाव में ये पुस्तकें अपने असली पाठकों तक नहीं पहुंच पातीं.

प्रारंभ में अन्य राज्यों की तरह ही केवल उत्कृष्ट साहित्यकारों को ‘भारत भारती’ सम्मान देने की योजना बनी, पर समय के साथ पुरस्कारों की संख्या बढ़ती गयी और इस समय कुल 112 पुरस्कार दिये जाते हैं, जिनका मूल्य 50 हजार से पांच लाख रुपये तक है. देश और प्रदेश के साहित्यकारों को बड़ी राशि के इतने अधिक पुरस्कार केवल उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ही देता है. संस्थान का पहला ‘भारत भारती’ पुरस्कार 1981 में महीयसी महादेवी वर्मा जी को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने समर्पित किया था. पहले यह सम्मान देने प्रधानमंत्री आते थे. तब एक बार आचार्य किशोरीदास वाजपेयी को ‘भारत भारती’ देने मोरारजी देसाई आये थे. वाजपेयी जी का नाम बार-बार पुकारा गया, मगर वे दर्शक दीर्घा की प्रथम पंक्ति से उठ कर मंच पर नहीं आये. जब देसाई जी को बात समझ में आयी; वे खुद नीचे उतर कर वाजपेयी जी के पास पहुंचे और उन्हें विधिवत सम्मानित किया. वह दिन न केवल संस्थान का, बल्कि देश के साहित्यिक इतिहास का स्वर्णिम दिन था.

उसके बाद सामान्यत: मुख्यमंत्री के हाथों यह सम्मान दिया जाता था, वह भी उनकी प्राथमिकता तभी बना, जब मुलायम सिंह सत्ता में आये. साहित्यकारों और पत्रकारों को सहायता करने की जो ललक नारायण दत्त तिवारी में थी, उससे कहीं बढ़-चढ़ कर मुलायम सिंह में रही. यह क्रम तब टूटा, जब मायावती सोशल इंजीनियरिंग के बूते दूसरी बार सत्ता में आयी. बाद के दिनों में तो वह साहित्य से इतना घृणा करने लगी, कि उसने सारे पुरस्कार हटा कर केवल तीन रखे. वे भी तीन वर्षो से किसी को नहीं दिये. सत्ता कैसे अपात्र व्यक्तियों का विवेक छीन लेती है, उसका उदाहरण लखनऊ से चुनार तक मायावती काल के अवशेषों में देखा जा सकता है. 52 पार्को वाले लखनऊ के सारे पेड़ काट कर उसे पत्थरों का शहर बना दिया गया. इस सनक में चुनार का वह पहाड़ गायब हो गया, जो हिमालय से भी पहले के भारत का प्रत्यक्षदर्शी था.

जब संस्थान के अध्यक्ष वरिष्ठ कवि श्री उदयप्रताप सिंह बनाये गये, तब संस्थान अंतिम सांसें ले रहा था. उनके प्रयास से मुख्यमंत्री अखिलेश ने न केवल सारे पुरस्कारों को पुनर्जीवित किया, बल्कि उनकी राशि भी दोगुनी कर दी. इस बार के सम्मान समारोह में सात वर्षो के बाद पुरस्कार वितरण मुख्यमंत्री के हाथों संपन्न हुआ. मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगे के तनावों को बाहर छोड़ कर समारोह में अखिलेश के साथ मुलायम सिंह भी समय से आये. उदयप्रताप जी ने तमाम निषेधों के बावजूद ‘भारत भारती’ के लिए नीरज जी के चयन को युक्तिसंगत बनाने का प्रयास किया और कहा कि दुनिया की सारी भाषाओं में पद्य पहले आया, गद्य बाद में. यह भी कि कविता संपूर्ण साहित्य की मुखाकृति है, पर कुल 112 पुरस्कारों में मात्र 6 पुरस्कार कवियों को दिये जा रहे हैं.

पुरस्कृत साहित्यकारों में नीरज जी को ही बोलने के लिए आमंत्रित किया गया, मगर वे जिस तरह की बातें करने लगे, वह सम्मान की गरिमा के अनुरूप नहीं था. उनके भाषण का सारांश था कि ‘यह सम्मान उन्हें उनकी योग्यता पर नहीं, मुलायम-परिवार के साथ चिर आत्मीय संबंधों के कारण मिला है.’ यही तो उनके आलोचक एक मास से चिल्ला रहे थे. वे शुरू से बदनाम होकर नामवर बनने का रास्ता अपनाते रहे हैं. पहले कामिनी, अब कंचन के कारण वे सुर्खियों में हैं. मेरी मान्यता है कि ‘पद्मभूषण’ नीरज पिछली आधी सदी से हिंदी कविता के ‘ब्रांड नेम’ हो चुके हैं और उनका नाम किसी भी सम्मान से अधिक तेजस्वी है.

इतने साहित्यकारों को एक साथ सम्मानित करने से भी सम्मान की गरिमा नष्ट होती है, जिसे समारोह के अंत में ली गयी ग्रूपिंग के दौरान हुई अफरातफरी में देखा जा सकता था. उद्घोषिका के आवाहन पर मैं मंच पर चढ़ तो गया, मगर जब मैंने देखा कि वरिष्ठ साहित्यकार लोग मान-अपमान भूल कर नेताओं के पीछे खड़े हैं, तो मैंने चुपचाप वहां से सरक जाना ही उचित समझा. लक्ष्मी के आगे सरस्वतीपुत्र तभी अकड़ सकते हैं, जब वे अर्थपिशाच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में फटेहाल रह सकने की कूवत रखते हों. जिनमें यह नहीं है, वे अपने वाद, पंथ और शील को बिसात की तरह, केवल मजमा जमाने के लिए बिछाते हैं और काम हो जाने पर उन्हें लाल कपड़े में लपेट कर ताक पर रख देते हैं.

मुझे बार-बार ठाकुर भाई याद आ रहे थे, जिनकी औरस संतानें यही हिंदी संस्थान व देवघर विद्यापीठ हैं, जो उनके पुण्य से निरंतर आगे बढ़ रही हैं, जबकि अन्य हिंदी संस्थाओं को लोग खा-पीकर बैठ गये. काश कि ऐसे मौकों पर उन्हें दोनों संस्थानों में याद किया जा सकता और उनके नाम पर कम से कम गीत/नवगीत का कोई पुरस्कार दे दिया जाता!

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