कानून कितना भी अच्छा हो, नीयत में खोट आ जाये तो उल्लंघन के रास्ते निकाले जा सकते हैं. लगता है कि केंद्र सरकार परमाण्विक दायित्व से जुड़े कानून के मामले में यही करने जा रही है. प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा से पहले खबरें आ रही हैं कि एटमी ऊर्जा की तकनीक व साजो-सामान का व्यापार करनेवाली कंपनियों को खुश करने के अमेरिकी दबाव में सरकार ने परमाण्विक दायित्व सुनिश्चित करनेवाले बाध्यकारी प्रावधान में ढील देने का मन बना लिया है.
इसके लिए माध्यम बनाया जा रहा है एटॉर्नी जनरल जी वाहनवती की एक राय को. वाहनवती ने परमाण्विक ऊर्जा के मामले में फैसला लेने की सर्वोच्च संस्था डिपार्टमेंट ऑफ एटॉमिक एनर्जी को राय दी थी कि एटमी संयंत्र स्थापित करने के उद्देश्य से कोई भारतीय संचालनकर्ता अगर जरूरी प्रौद्योगिकी और कल-पुर्जे हासिल करने के लिए किसी कंपनी से करार करता है तो हर्जाना मांगने का हक प्रदान करनेवाला प्रावधान तभी लागू माना जाये जब करार में इसका उल्लेख हो.
भारत में परमाण्विक बिजली उत्पादन के संयंत्र स्थापित करने का जिम्मा न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआइएल) का है. कहा जा रहा है कि गुजरात में एटमी ऊर्जा संयंत्र की स्थापना के लिए एनपीसीआइएल और अमेरिका की एक कंपनी के बीच प्रारंभिक स्तर का जो करार होने को है, उसमें परमाण्विक सुरक्षा से संबंधित कैबिनेट समिति वाहनवती की राय को आगे कर करार को हरी झंडी दे देगी. चूंकि इस सिलसिले की बैठक 24 सितंबर तक टाल दी गयी है, इसलिए स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि प्रावधान की अनदेखी होगी ही.
भारत सरकार दबाव में है, क्योंकि बीते आठ महीने में अमेरिका एक से ज्यादा दफे भारत को चेता चुका है कि परमाण्विक दायित्व का कानून अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा नहीं उतरता और भारत-अमेरिकी संबंधों में बाधा की तरह है. पर, इस संबंध में कोई भी फैसला लेने से पहले याद रखना होगा कि सरकार का हित देशहित का पर्यायवाची नहीं होता. देशहित की पहचान लोकहित से होती है. यदि लोकहित सुनिश्चित करने के लिए परमाण्विक दायित्व स्थिर करनेवाला कानून बना था, तो फिर भारत-अमेरिकी संबंधों की बेहतरी के नाम पर उसकी बलि नहीं चढ़ायी जानी चाहिए.