ईश्वरी प्रसाद
इतिहासकार
देश आजाद हुआ, लेकिन किसानों पर शोषण का शिकंजा हल्का नहीं हुआ. उसे प्रकृति की मार, बाजार का शोषण, हरित क्रांति की दोषपूर्ण व्यवस्था और नयी आर्थिक नीति का हमला, सब एक साथ ङोलना पड़ रहा है. यदि इन संकटों से उसे बचाया नहीं गया, तो देश में किसानों की आत्महत्या बढ़ती ही जायेगी.
भारत में किसानों द्वारा आत्महत्या उनके दुर्दिन का अंतिम पड़ाव है. किसानों की विपदा का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना इस देश के योजनात्मक आर्थिक विकास का. लेकिन सिर्फ 1995 से ही भारत सरकार के ‘ग्रामीण मंत्रलय’ ने उनकी आत्महत्या का आंकड़ा इकट्ठा करना शुरू किया है.
प्रो नटराजन ने बड़ी मेहनत से इन आंकड़ों का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला कि 1997 से 2005 के बीच करीब 1.14 लाख किसानों ने आत्महत्या की है. कई राज्य सरकारों ने भी आंकड़े भेजना शुरू किया है. सब मिला कर विशेषज्ञों की राय है कि 1995 से अब तक इस देश में करीब तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है.
किसानों की आत्महत्या हमारे आर्थिक विकास के चरित्र का परिचायक है, क्योंकि जब देश के आर्थिक विकास की दर तेज होती है, तो आत्महत्या की संख्या भी बढ़ती है. कृषि प्रधान देश में सिर्फ किसान सभी प्रकार की आत्महत्याओं का 11 प्रतिशत हिस्सा है. यह उसी समाज में संभव है, जहां लोगों का दिल इस स्थायी राष्ट्रीय विपत्ति को महसूस नहीं करता और इसलिए आंखें भी देखने से कतराती हैं. फिर भी, इसके गुनहगार की खोज राष्ट्रहित में है.
सभ्यता के विकास के विशेषज्ञों का मानना है कि मानवीय सभ्यता का आधुनिक युग एक नये चरण से गुजर रहा है. ऑलविन टॉफलर ने अपनी पुस्तक ‘द थर्ड वेव’ में लिखा है कि मानवीय सभ्यता कृषि सभ्यता को पार कर औद्योगिक सभ्यता में पहुंची है.
औद्योगिक सभ्यता के बाद ज्ञान सभ्यता, जिसमें धीरे-धीरे हम लोग प्रवेश कर रहे हैं, का फैलाव हो रहा है. इस तीसरे चरण का अविर्भाव पश्चिम के उत्तर औद्योगिक देशों में दिखाई पड़ रहा है. ज्ञान सभ्यता में विज्ञान की प्रधानता, सूक्ष्म टेक्नोलॉजी का विस्तार और उपभोगवादी जीवन शैली होगी. अत: टॉफलर मानते हैं कि अंततोगत्वा कृषि सभ्यता का आर्थिक जीवन में स्थान ‘मलमूत्र’ की तरह हो जायेगा.
इसी तरह मार्क्सवादी विचार के मुताबिक भी जब पूंजीवाद अंतिम ऊंचाई पर पहुंचेगा, अर्थव्यवस्था में सिर्फ दो ही वर्ग रह जायेंगे : पूंजीपति और मजदूर. स्वतंत्र किसान उत्पादन की प्रक्रिया से बाहर रहेंगे. अत: वर्ग के रूप में उन्हें समाप्त होना अनिवार्य है. कुल मिला कर यह माना जा सकता है कि स्वतंत्र खेती करनेवाले किसानों का अस्तित्व देर-सबेर समाप्त होना है. यह मानव सभ्यता के विकास का स्वाभाविक आचरण है.
भारत का आर्थिक विकास अभी सभ्यता के तीसरे चरण से काफी दूर है. फिर किसानों की बर्बादी क्यों? इसके लिए हमें आजाद भारत के आर्थिक कार्य-कलापों को देखना पड़ेगा. आजाद भारत ने राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए औद्योगिक विकास का रास्ता अपनाया. द्वितीय पंचवर्षीय योजना के साथ भारी उद्योगों की तरक्की का रास्ता प्रशस्त किया गया. उद्योग को ‘लीड सेक्टर’ का दर्जा मिला, यद्यपि मौखिक रूप से यह घोषणा की गयी कि ‘खेती का महत्व कम नहीं होगा.’
1991 के औद्योगिक नीति ने निजी उद्योगपतियों की बढ़ोतरी के लिए रास्ता साफ किया और भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाजार से एकाकार करने का लक्ष्य निर्धारित किया. वर्तमान सरकार विदेशों से पूंजी इकट्ठा कर उद्योग बढ़ाने पर जोर दे रही है, लेकिन इस आशय पर विचार नहीं है कि उद्योगों और शहरों की तरक्की से किसानों की बरबादी कैसे कम होगी.
उद्योग की तरक्की के निहितार्थ बढ़ते मजदूरों की संख्या और शहरी आबादी के लिए खेती का उत्पादन बढ़ना आवश्यक है.
19वीं शताब्दी में इंग्लैंड औद्योगिक तरक्की और मजदूरों का आंदोलन रोकने के लिए मजदूरों का वेतन न बढ़ा कर उपनिवेश से सस्ता गल्ला मुहैया किया गया था. भारत के उद्योगपतियों को अनवरत और सस्ता अनाज देने के लिए ‘हरित क्रांति’ की गयी. इसी के साथ आधुनिक खेती कई दूसरे प्रांतों में भी शुरू हुआ. हरित क्रांति यदि एक क्षेत्र में न होकर सारे देश में हुई होती, तो पांच राज्यों में जो पूंजी आधारित आधुनिक खेती शुरू हुई और किसानों की आत्महत्या का सिलसिला चला, वह नहीं हुआ होता.
भारत के नेतृत्व ने एलान किया था कि यहां का समाज समाजवादी र्ढे पर संचालित होगा. लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था पूंजीवादी हो गयी है. चूंकि यहां लोकतंत्र है, इसलिए किसानों का शोषण अप्रत्यक्ष होना था. कृषि के शोषण से उद्योग का महल खड़ा होना था.
नतीजतन, किसानों का शोषण-दोहन जरूरी था. भारत में कृषि पर निवेश घटता गया और उनकी वस्तुओं के कीमत को नीचे रखा गया. लेकिन आबादी का बोझ कम नहीं हुआ. आज कृषि की राष्ट्रीय आय में भागीदारी मात्र 15 प्रतिशत है, जबकि आबादी का 60 प्रतिशत इस पर निर्भर है. किसानों की आत्महत्या का गुनाहगार वह नीति है, जिसने ऐसा भागीदारी और जवाबदेही का असंगत अनुदान पैदा किया. अधिकांश किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, लेकिन कोई विकल्प नहीं है.
पुरानी कहावत है कि भारतीय किसान कर्ज में जन्म लेता है, कर्ज में ही जीवन र्पयत रहता है और कर्ज में मर जाता है. यह आज भी सही है. भारत में 85 प्रतिशत किसान सीमांत या छोटे हैं. यहां 65 प्रतिशत खेती मानसून भरोसे है, जिस पर किसान का कोई कब्जा नहीं. खेती दुनिया का सबसे खतरनाक धंधा है. जब फसल बरबाद होती है, तो किसान मारा जाता है.
उसे खेती के लिए तथा परिवार के लिए कर्ज लेना पड़ता है. किसानों द्वारा आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण उनके द्वारा कर्ज लेना है. अनुमान है कि आज भी देश का 80 प्रतिशत किसान कर्ज में डूबा हुआ है. युगों से उत्तम व्यवसाय की उपाधि से सुशोभित भारतीय कृषि, आजाद भारत में किसानों के लिए खूनी मैदान में तबदील हो गयी है.
देश के सर्वोपरि रोजगार और जीविका देनेवाले आर्थिक क्षेत्र को बरबादी से बचाने के लिए कई स्तरों पर नये सिरे से सुधार लाना जरूरी है.
किसानों को उनकी वस्तुओं के लिए लाभदायक मूल्य दिया जाना चाहिए. कृषि मूल्य निर्धारण में किसानों को बेहुनर वाला मजदूर की श्रेणी से निकाल कर कुशल मजदूर की हैसियत से गणना होनी चाहिए. कृषि मजदूरों को भी उद्योग के मजदूरों की तरह वेतन मिलना चाहिए. कृषि को अलाभकर व्यवसाय से निकाल कर खुशहाल क्षेत्र बनाने के लिए जरूरी है कि जो कीमत निर्धारित की जाती है, उसमें करखनियां वस्तुओं की बढ़ती कीमत का भी ध्यान रखा जाये.
इसी के साथ, ग्रामीण क्षेत्रों को फिर से आबाद किया जाये. देश आजाद हुआ, लेकिन किसानों पर शोषण का शिकंजा हल्का नहीं हुआ. उसे प्रकृति की मार, बाजार का शोषण, हरित क्रांति की दोषपूर्ण व्यवस्था और नयी आर्थिक नीति का हमला, सब एक साथ ङोलना पड़ रहा है. यदि इन संकटों से उसे बचाया नहीं गया, तो देश में किसानों की आत्महत्या बढ़ती ही जायेगी.