-हरिवंश-
यह किताब (बीकमिंग ए माउंनटेन – हिमालयन जर्नीस इन सर्च आफ द स्केयर्ड एंड द सबलाइम, लेखक – स्टीफेन अल्टर, प्रकाशक-एलपेज, कीमत-495) पढ़कर अफसोस हुआ कि इस पुस्तक के लेखक स्टीफेन अल्टर को अब तक पढ़ा क्यों नहीं?
अत्यंत संवेदनशील व सृजनशील मन. सुंदर प्रवाहमय गद्य, कवि का लय, लेखन में गहरी संवेदना और समझ. दर्शन, ईश्वर पर आस्था नहीं. पर प्रकृति और पहाड़ (हिमालय) से ही बंधे. या प्रकृति या हिमालय उनमें रमा है, और वह इनमें. लेखक में गहरी दृष्टि है. खुद के जीवन को समष्टि के साथ जोड़ कर देखने की ललक. कवि धूमिल की भाषा में कहें तो स्टीफेन के जीवन में होने या जीने के पीछे एक तर्क है.
कई किताबें उनकी हैं. संयोग से उनकी यह पहली किताब हाथ लगी. यात्रा वृत्तांत की दृष्टि से गंभीर और ज्ञानवर्धक. उनकी कुछेक पुस्तकें हिमालय या गंगा के उद्गम स्रोतों की यात्रा से भी जुड़ी हैं. अमृतसर से लाहौर की यात्रा पर भी उनकी पुस्तक है. किताब से ही उनका परिचय पाया. हालांकि उनका पासपोर्ट अमेरिकी है, पर यह पुस्तक पढ़कर उन्हें खांटी भारतीय कहूंगा. उदारता और अनेकता में एकता ही हमारी अनमोल विरासत है.
हिमालय की तलहटी, मसूरी से स्टीफेन अल्टर का जन्म का रिश्ता है. 30 सालों पहले उनके पिता ने वहीं एक घर खरीदा, जिसे 1840 में एक अंगरेज अफसर ने बनवाया था. स्टीफेन के पिता का जन्म कश्मीर में हुआ था. 1926 में. हिमालय की गोद में. उनके पिता और मां, मिशनरी थे. पिता ने स्टीफेन को पहाड़ों में ही पढ़ाया और वह वुडस्टॉक स्कूल के प्रिंसिपल बने. फिर पीने के पानी की योजनाओं, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण संबंधित मुद्दों पर हिमालय की तलहटी में बसे गांवों में काम किया.
जनजागरण और जागरूकता अभियान द्वारा. स्टीफेन के दादा-दादी, 1916 में मसूरी रहने आये. गर्मी के दिनों में. इसलिए वह मानते हैं कि पहाड़ों पर मेरा जन्मजात अधिकार है. स्टीफेन के दो बच्चे जयंत और एक बच्ची यहीं पले. बाद में अपनी पत्नी अमिता के साथ वह हवाई, इजिप्ट और बोस्टन में भी रहे. पर अंतत: 2004 में वह और उनकी पत्नी स्थायी रूप से मसूरी, अपने घर में रहने के लिए लौट आये. हालांकि उनके पास अमेरिकी पासपोर्ट है, पर हिमालय को ही वह अपना घर मानते हैं. इसी घर में उनके पिता, 2011 में नहीं रहे. अपने पिता के न रहने की बड़ी भावुक यादें स्टीफेन के मन में हैं.
चूंकि स्टीफेन का जन्म मसूरी की वादियों में हुआ. इसलिए वह कहते हैं कि आजीवन मैंने पहाड़ों को ही देखा है. कभी सुबह, कभी दोपहर और कभी शाम में. कभी चांदनी रात में, तो कभी सुनहरी शाम में. पर वह बताते हैं कि वह शब्द या क्षमता या भाव मेरे अंदर नहीं है कि मैं पहाड़ों के बारे में कुछ कह या बता सकूं.
पहाड़ों के साथ जुड़े मिथ या उनके प्राकृतिक उद्भव-इतिहास, सब कुछ पहेली ही है. स्टीफेन चित्रकारी भी करते हैं. वह कहते हैं कि पेंसिल से या कलम से या वाटर कलर से, सबसे उन्होंने पहाड़ों को चित्रित करना चाहा. उसके बारे में कुछ कहना चाहा, पर वह कामयाब नहीं हो सके. हजारों हजार तसवीरें लीं. अलग-अलग समय की तसवीरें. पर फिर भी वह पहाड़ों के बारे में सब कुछ बता या चित्रित नहीं कर पाये.
वह कहते हैं कि मैं खुद को पहाड़ों में देखता हूं, और अपने को इसका एक हिस्सा मानता हूं. स्टीफेन स्पष्ट करते हैं कि अगर समग्रता में कहूं, तो जो शाश्वत समय है, अनंत सृष्टि है, उससे एक आत्मीय लगाव-रिश्ता दिखता है. इन्हीं पहाड़ों के माध्यम से. आप समझ सकते हैं कि जो व्यक्ति भाव, भाषा और मन से हिमालय या भारत की धरती में इस कदर डूबा हो, उसे कभी इस परिवेश में खुद को अजन्मा महसूस करने की स्थिति पैदा हो, तो उसकी मन:स्थिति कैसी होगी?
मसूरी के उसी सुंदर घर में स्टीफेन अल्टर और उनकी पत्नी अमिता रह रहे थे कि अचानक कुछ वर्षो पहले चार हथियारधारियों ने घर पर हमला किया. बेवजह. आज तक इन्हें न पकड़ा जा सका, न पहचाना जा सका, न इन हमलावरों के इरादों का पता चल सका. स्टीफेन और उनकी पत्नी का कोई निजी शत्रु हो नहीं सकता. यह उनके लेखन से लगता है.
इन दोनों को लगभग मरा छोड़ कर ये हमलावर भाग गये. बिना कुछ लूटपाट किये. जिस व्यक्ति ने भारतीय समाज को, पहाड़ की उस मिट्टी को, अपने बचपन को, हिमालय और उस परिवेश का हिस्सा बनाया, उसे पहली बार जीवन में एहसास हुआ कि बुराई क्या है? पहली बार राक्षसबोध हुआ. अज्ञात का आतंक समझा. अपने जन्म की धरती पर स्टीफेन ने पहली बार खुद को विदेशी पाया. अपनी ही मिट्टी में पराया. हालांकि पति-पत्नी मौत के मुंह से निकल आये.
घाव भरने में समय लगा, पर मन का जख्म नहीं भरा. इसी दौर में स्टीफेन ने तय किया कि वह हिमालय के उन हिस्सों में जायेंगे, चोटी पर पहुंचेंगे, जो पहाड़ उनको वर्षों से खींचते रहे हैं. ताकत देते रहे हैं, दृष्टि, भरोसा और सुकून. वह चल पाने की स्थिति में नहीं थे. उनका पांव साथ नहीं दे रहा था, क्योंकि पांव पर कई गहरे जख्म थे. उन्हें लगता था कि शायद जिंदगी में वह चल भी नहीं पाये.
अनंत का आकर्षण और उस व्यक्ति के जीवन संकल्प की कहानी है, यह पुस्तक. अपनी ही धरती, अपने ही घर में न भरनेवाले जख्म व पीड़ा की कहानी है. मौत के मुंह से निकलकर आहत भावना है. मानसिक सदमा है. गहरी शारीरिक चोट है. पर साथ ही यह संकल्प भी कि अपने पैरों पर दोबारा खड़ा होना होगा और हिमालय की इन्हीं चोटियों पर पहुंचने से वह ताकत मिलेगी. इसी क्रम में स्टीफेन अल्टर ने हिमालय की तीन चोटियों की यात्रा की. बंदरपूंछ पहाड़ी, नंदादेवी, जो भारत में दूसरी सबसे बड़ी चोटी मानी जाती हैं और फिर तिब्बत स्थित कैलास मानसरोवर. इन तीनों पर जाने, यात्रा करने के पीछे उनका मकसद था कि मानसिक रूप से वह अपने घाव भर सकें. शारीरिक रूप से भी खुद को खड़ा कर सकें.
अपनी जन्मभूमि की मिट्टी से जो रिश्ता रहा है, उसे पुन: पा सकें. अपने जन्म की धरती से इस घटना से जो दरार, कसक, चोट और ठेस पहुंची थी, लगा कि शायद हिमालय इस जख्म को भर देगा. इन पहाड़ों की यात्रा या ट्रेकिंग स्टीफेन के लिए एक निजी खोज, कुछ पाने या विराट से जुड़ने जैसा अनुभव रहा. इस यात्रा में उन्होंने पहाड़ों और पहाड़ के अंदर के स्वरूप को और जानने की कोशिश की. प्रकृति के इस विराट संसार को, हिमालय के इतिहास को, उसके मिथकों को और प्रचलित दंत कथाओं को. लोगों से या वहां जानेवाले तीर्थयात्रियों से मिलकर, स्टीफेन ने इस यात्रा वृत्तांत में अद्भुत ढंग से अपने अनुभवों को चित्रित किया है.
कविता की भाषा में कहा है. पहाड़ या हिमालय की ऊंची चोटियों पर जो अनुभव स्टीफेन को हुए, वे प्रकृति और सृष्टि के बड़े फलक के प्रतिबिंब हैं. हालांकि स्टीफेन कहते हैं कि उन्हें कभी ईश्वर पर विश्वास नहीं रहा, पर जिस दृष्टि से वह पहाड़ों के बारे में या प्रकृति के बारे में गहराई से बताते हैं, वह उनके दार्शनिक पक्ष को उजागर करता है. शुरुआत में ही उन्होंने हिमालय पर तीन अद्भुत उद्धरण दिये हैं. पहला उद्धरण फ्रांसिस यंग हसबैंड का है. तिब्बत या हिमालय की उनकी यात्रा पुस्तक भी निराली है. दूसरा उद्धरण पाल बाबेल्स का और तीसरा स्टीफेन स्पैंडर का. फ्रांसिस यंग हसबैंड हिमालय के बारे में कहते हैं कि हिमालय को हम बहुत दूर से देखते हैं, समग्रता में देखते हैं, सही परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तो जख्म या पीड़ा अस्त-व्यस्तता, गंदगी, तनाव सब अमहत्वपूर्ण लगते हैं.
ये सब नगण्य हो जाते हैं. हम जानते हैं कि ये सब चीजें हैं. हम यह भी जानते हैं कि ये सब हकीकत है. महत्वपूर्ण हैं, वास्तविकता की तरह. पर एक सत्ता है, जो इन बुराइयों के बीच भी अच्छाई का सृजन कर रही है. यही हिमालय का सही सीक्रेट् या रहस्य है. 261 पेजों की इस किताब में चार अध्याय हैं. पर हर अध्याय के कुछ उपअध्याय हैं. चारों को मिलाकर 17 उपअध्याय और अंत में साभार और बिबलियोग्राफी.
इस पुस्तक को पढ़ते हुए, पहला सवाल मन में उभरा, जो वर्षों से जेहन में है कि दुनिया में अच्छे लोगों को कष्ट क्यों होता है? स्टीफेन और उनकी पत्नी अमिता का किसी से कोई निजी राग, द्वेष या बैर नहीं. अनजाने-अनचाहे उन पर हमला होता है.
शरीर के जख्म तो भरते हैं. मौत के कगार से लौटने का उनका अनुभव, पुलिस की जांच, पत्रकारों का व्यवहार, सबकुछ भारत की मौजूदा अराजक स्थिति का वर्णन है. पर इस हमले से उनके मन या आत्मा पर जो चोट लगी, उस मन के चोट का मर्म जानने, उस पीड़ा को कम करने के लिए उन्होंने नंदा देवी, कैलास और बंदरपूंछ की यात्रा की. पूरा यात्रा वृत्तांत अत्यंत बेहतरीन, बल्कि कवित्व की भाषा में मन को छूता है.
यात्रा वृत्तांत में हिमालय के साथ या पहाड़ों के साथ समरस या या एकात्म होने, उनका हिस्सा बन जाने का स्वर है. जिन तीन पहाड़ों पर खासतौर से स्टीफेन ने यात्रा की, उनके बारे में या इनके महत्व को वह इस रूप में कहते हैं कि बंदरपूंछ सांत्वना देता है. दर्द को भरने का एहसास कराता है. नंदादेवी, आनंद, खुशी का प्रतीक है. यह क्रोध, भय और शंका से मुक्त करती है. और कैलास, जगत के आर-पार के बाद के दृश्यों की झलक. मानसरोवर झील का सौंदर्य-परिवेश, अनंत ऊर्जा का स्रोत. यह बखान अनुभवातीत है. लोकातीत या श्रेष्ठ. पर स्टीफेन की नजर में हिमालय के ये तीनों पहाड़ एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.
उनकी आत्मा एक है. आंतरिक कारटियोग्राफी एक है. मानचित्र एक है. रूप एक है. वह कहते हैं इन तीनों पहाड़ियों की यात्रा एक तरह से रिकवरी (पुन: स्वस्थ होने) और रिकांसिलियेशन (खुद से तादात्मय बनाने) के पथ की यात्रा है. यात्रा के पहले वह संकल्प करते हैं कि मेरे घाव भरेंगे, मेरे पैर के गंभीर जख्म भी ठीक होंगे और मैं इन ऊंचे पहाड़ों की यात्रा करूंगा. फिर वह बताते हैं कि पहाड़ों के लिए उनका अर्थ क्या है? इसमें वह कवियों से लेकर दार्शनिकों, संस्कृत के कालिदास से लेकर हिमालय पर लिखी कविताओं का उल्लेख करते हैं. बहुत ही मार्मिक और मन को छूनेवाला. वह एक कहावत उद्धृत करते हैं कि प्रकृति की हर चीज लगातार आमंत्रित करती है कि हम वो बनें, जो हम वास्तव में हैं.
वह इस कथन को थोड़ा बदलते हैं. कहते हैं कि वह हर चीज जो हमें लगातार आमंत्रित करती है, प्रकृति के साथ लयबद्ध होने के लिए, एक हो जाने के लिए. इस यात्रा में इसका एहसास उन्हें होता है. वह कहते हैं कि पहाड़ मन की, मस्तिष्क की एक स्थिति है. यह जीवन की उन सारी आकांक्षाओं, प्रत्याशाओं, भय, दुख से हमें मुक्त करता है, जो हमारे विचारों पर छाये रहते हैं. पहाड़ों पर ध्यान लगाना या पहाड़ों का ध्यान करना, हर परंपरा में मस्तिष्क को शेष चीजों से मुक्त करने का माध्यम माना गया. हिमालय तो खासतौर से पवित्रता का एक अद्भुत आलोक या आभा लिये हुए है.
1862 में लिखे गये हेनरी डेविड थ्रो के लेख वाकिंग (घूमना) का वह उल्लेख करते हैं. घूमने का मर्म क्या है? हम स्वास्थ्य के नाम पर घूमते हैं. पर घूमने का आनंद एक अलग प्रसंग है. इसी संदर्भ में वह कवि वर्ड्सवर्थ का उदाहरण देते हैं, जिनकी लाइब्रेरी घर के अंदर थी, पर उनका अध्ययन संसार घर के बाहर था. यानी उनकी लाइब्रेरी घर के अंदर, लेकिन लाइब्रेरी की किताबों का अध्ययन घर के बाहर यानी प्रकृति के बीच होता था. नंदादेवी की यात्रा और फिर कैलास की यात्रा का बड़ा मार्मिक और सचित्र वर्णन स्टीफेन करते हैं.
कैसे वह नेपाल होकर गुजरात और महाराष्ट्र के यात्रियों के साथ एक यात्री बनकर कैलास-मानसरोवर का दर्शन करते हैं. कैलास-मानसरोवर के रास्ते का वर्णन, उसका सौंदर्य, यात्रा की चुनौतियां, उसका स्वरूप और सैकड़ों-हजारों वर्षो से इस रास्ते से होकर गुजरे कुछेक लोगों के चुनिंदे अनुभव. तिब्बत के महायोगी मिलारेपा की गाथा. उस गुफा की यात्रा. यात्रा के अंतिम पड़ाव बंदरपूंछ होते हुए घर लौटने का विवरण है. यह पुस्तक महज यात्रा वृत्तांत नहीं है. अपने दुख व पीड़ा और चुनौतियों के बीच एक नये सृजन की तलाश है. नये ढंग से जीने-ऊर्जा की कोशिश. अपनी पुस्तक में वह कई महत्वपूर्ण कलाकृतियों का उल्लेख करते हैं, जिनके माध्यम से वह पहाड़ों को देखते हैं.
पहाड़ों की उन कलाकृति का वर्णन करते हैं, जिनके माध्यम से उन्होंने हिमालय को जानने-समझने की कोशिश की है. यह यात्रा पहाड़ से एकाकार होने की यात्रा है. पहाड़, जो सदियों से मनुष्य के अस्तित्व से जुड़े हैं, उनसे एक होने, तारतम्य बनाने की यह अनोखी यात्रा. अपनी निजी पीड़ा से मुक्ति के क्रम में हुई इस यात्रा का परिणाम है, यह नया सृजन.
(लेखक राज्यसभा सांसद (जदयू) हैं.)