सफल परिणामों की उम्मीद जगाता दौरा

दक्षिण एशिया में व्याप्त गरीबी, परस्पर अविश्वास, आतंक और आंतरिक हिंसा के वातावरण से मुक्ति के लिए पड़ोसी देशों के पास सहभागिता के अलावा कोई विकल्प नहीं है तथा चीन के बढ़ते दखल की चुनौती भी भारत के सामने है. शासन-प्रमुखों की विदेश यात्राएं और शिखर वार्ताएं द्विपक्षीय तथा कूटनीतिक संबंधों के समीकरणों में महत्वपूर्ण […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 8, 2015 5:20 AM
दक्षिण एशिया में व्याप्त गरीबी, परस्पर अविश्वास, आतंक और आंतरिक हिंसा के वातावरण से मुक्ति के लिए पड़ोसी देशों के पास सहभागिता के अलावा कोई विकल्प नहीं है तथा चीन के बढ़ते दखल की चुनौती भी भारत के सामने है.
शासन-प्रमुखों की विदेश यात्राएं और शिखर वार्ताएं द्विपक्षीय तथा कूटनीतिक संबंधों के समीकरणों में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश की यात्रा निश्चित रूप से ऐसा ही एक मौका है.
यह अहसास राजधानी ढाका के उत्सवी माहौल और भारतीय प्रधानमंत्री की आगवानी के लिए प्रधानमंत्री शेख हसीना का स्वयं हवाई अड्डे पर आने में भी देखा जा सकता है. दो पड़ोसी देशों के बीच ऐसे क्षण कभी-कभार ही आ पाते हैं, जब वे दशकों पुराने सीमा-संबंधी विवादों का निपटारा परस्पर विश्वास और शांति के वातावरण में कर पाते हैं.
इस यात्रा में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की उपिस्थति में सीमा-क्षेत्रों की अदला-बदली के समझौते पर हस्ताक्षर किये गये हैं. इस समझौते पर 1950 के दशक में भारत-पाकिस्तान (तब बांग्लादेश संप्रभु राष्ट्र नहीं बना था) के बीच सहमति बनी थी, पर युद्धों और कूटनीतिक अविश्वास के कारण उसका नतीजा न निकल सका था. वर्षों बाद 1974 में भारत और बांग्लादेश में लिखित समझौता हुआ, पर भारतीय राजनीति की आंतरिक खींच-तान ने उसे अब तक टाले रखा था. पिछले संसद-सत्र में सर्व-सम्मति से इसे मंजूरी मिली.
प्रधानमंत्री मोदी ने बिल्कुल सही कहा है कि इस समझौते से हमारी सीमाएं अब अधिक सुरक्षित होंगी और लोगों के जीवन में अधिक स्थायित्व आयेगा. भारत-पाकिस्तान के विभाजन के दौरान सीमा-निर्धारण की जल्दबाजी और अपरिपक्वता के कारण अभी 106 भारतीय बस्तियां बांग्लादेशी क्षेत्र से तथा 92 बांग्लादेशी बस्तियां भारतीय भूमि से घिरी हैं और पहुंच की परेशानी के कारण ये बस्तियां सरकारी योजनाओं से वंचित रही हैं. इन क्षेत्रों की अदला-बदली से करीब 4,000 किलोमीटर लंबी भारत-बांग्लादेश सीमा स्पष्ट होगी और बस्तियों के लोग अधिक सुरक्षा और सम्मान के साथ जीवन बसर कर सकेंगे.
दशकों पुरानी समस्या को संसद की मंजूरी से अंतिम समझौते तक लाने की त्वरित और सफल कोशिश का श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को है. इस समझौते से दक्षिण एशिया के अन्य पड़ोसी देशों को भी यह संकेत जायेगा कि भारत शांति और सहयोग के साथ समूचे क्षेत्र के विकास के लिए कृतसंकल्प है. प्रधानमंत्री मोदी की दो-दिवसीय यात्रा में आर्थिक, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक सहयोग के 22 अन्य समझौतों पर भी सहमति बनी है.
मोदी ने बांग्लादेश के लिए दो बिलियन डॉलर के नये ऋ ण की घोषणा भी की है, जो पहले कुछ सालों से तय 800 मिलियन डॉलर ऋ ण के अतिरिक्त है. दोनों देशों ने मौजूदा व्यापार घाटे को कम करने पर भी जोर दिया है. भारत-बांग्लादेश के बीच 6.5 बिलियन डॉलर का व्यापार होता है, लेकिन बांग्लादेश द्वारा भारत को क्या जानेवाल निर्यात मात्र 500 मिलियन डॉलर के लगभग ही है. दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर भी प्रधानमंत्री की पहल काफी अहम है.
हालांकि तीस्ता नदी जल-विवाद इस यात्रा का विषय नहीं था, परंतु प्रधानमंत्री के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की उपिस्थति ने इस संबंध में भी सकारात्मक संदेश दिया है तथा प्रधानमंत्री ने शेख हसीना को जल्दी ही कदम उठाने का भरोसा दिया है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक तरफ दशकों पुराने समझौते पर अमल की आशा बन रही हो, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी प्रधानमंत्री की यात्रा में ममता बनर्जी के साथ पर राजनीतिक टिप्पणियां कर रहे हैं.
वह भूल गये कि इस समझौते की आधारशिला जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के प्रयासों से ही रखी गयी थी तथा पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भी बस्तियों की अदला-बदली और तीस्ता विवाद पर गंभीर रुख अपनाया था. इन मामलों में पश्चिम बंगाल शासन की अहम भूमिका है.
प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा पर ऐसी गैर-जिम्मेवाराना टिप्पणी उचित राजनीतिक व्यवहार नहीं है. देश की आंतरिक राजनीति का नकारात्मक असर अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर नहीं पड़ना चाहिए. दक्षिण एशिया में व्याप्त गरीबी, परस्पर अविश्वास, आतंक और आंतरिक हिंसा के वातावरण से मुक्ति के लिए पड़ोसी देशों के पास सहभागिता के अलावा कोई विकल्प नहीं है तथा चीन के बढ़ते दखल की चुनौती भी भारत के सामने है.
ऐसे में भारत को जगत मेहता की कुछ साल पहले आयी किताब ‘ट्रिस्ट बिट्रेएड : रिफ्लेक्शन ऑन डिप्लोमेसी एंड डेवलपमेंट’ की इस सलाह को भी ध्यान में रखना होगा कि असमान पड़ोसियों के साथ कूटनीति से कठिन कुछ भी नहीं है.दशकों से चले आ रहे कथित बड़ा भाई की भूमिका से उलट परस्पर भागीदारी और सम्मान के साथ सहयोग ही उचित रास्ता है. इस लिहाज से मोदी का यह दौरा उम्मीदों को ऊंची उड़ान देता है.

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