जफर को कू-ए-यार में दो गज जमीन कब!

कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार आज जब किसानों की खेती की ही नहीं पांवों तले की जमीन भी खतरे में है, याद आता है कि गुलामी के दिनों में क्रूर अंगरेजों ने 17वें और अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह ‘जफर’ तक को उनके कू-ए-यार में दो गज जमीन का मोहताज बना डाला था! अंगरेजों द्वारा 27 […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 10, 2015 5:32 AM

कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

आज जब किसानों की खेती की ही नहीं पांवों तले की जमीन भी खतरे में है, याद आता है कि गुलामी के दिनों में क्रूर अंगरेजों ने 17वें और अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह ‘जफर’ तक को उनके कू-ए-यार में दो गज जमीन का मोहताज बना डाला था!

अंगरेजों द्वारा 27 जनवरी से 09 मार्च, 1858 तक मुकदमे के 40 दिन लंबे नाटक के बाद अक्तूबर, 1858 में जफर को बर्मा, जिसे अब म्यांमार कहते हैं, निर्वासित कर दिया गया. इस निर्वासन की तकलीफें बयान करने का उनके पास एक ही माध्यम थी-शायरी और अंगरेजों ने उन्हें उससे भी महरूम करने के लिए कलम, रौशनाई और कागज तक के लिए तरसाया.

तब जफर ने ईंटों के रोड़ों को कलम और दीवारों को कागज बना कर गजलें लिखीं. ‘दिन जिंदगी के खत्म हुए, शाम हो गयी’ तो उनके निकट सबसे बड़ी बदनसीबी यह थी कि दफन होने के लिए ‘दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में!’

अफसोस कि हम अपनी आजादी के 68 वर्षो बाद भी अपने आखिरी बादशाह की यह बदनसीबी नहीं दूर कर सके!

सात नवंबर, 1862 को उनके निधन व यंगून के एक कब्रिस्तान में दफन के वक्त भी उनकी गरिमा का खयाल नहीं रखा गया था. वे डरे हुए थे कि ‘जफर’ के इंतकाल की खबर से भारत में बगावत भड़क सकती है. नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 1942 में अपना ऐतिहासिक ‘दिल्ली चलो’ अभियान जफर की कब्र पर प्रार्थना करके शुरू किया था.

उनके चालक रहे कर्नल निजामुद्दीन कहते हैं कि चालीस के दशक में नेता जी ने, जहां जफर को दफनाया गया था, उस कब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी कब्र को पक्की कराया था. कब्र के सामने चहारदीवारी भी बनवायी थी.

2007 में 1857 की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ आयी, तो आवाज उठी कि जफर के अवशेषों को भारत लाना और मेहरौली में सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी के आस्ताने के करीब दफनाना चाहिए.

ताकि कू-ए-यार में दो गज जमीन की उनकी हसरत पूरी हो सके. जफर ने दिल्ली में रहते अपने सुपुर्द-ए-खाक होने के लिए वही जगह चुन रखी थी.

तब मनमोहन सिंह के सरकारी निवास पर हुई बैठक में सर्वोदय नेता व सांसद निर्मला देशपांडे के इस सुझाव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था.

बैठक में सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, एबी वर्धन, प्रकाश करात, मुलायम यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार जैसी पक्ष-विपक्ष की अनेक हस्तियों की उपस्थिति से लगा था कि अब इस काम में कतई देर नहीं होगी. बर्मा की सरकार भी इसमें बाधक नहीं थी. लेकिन जैसे ही डेढ़ सौवीं वर्षगांठ गयी और बात खत्म हो गयी.

आज हम जफर की यादों से वह सलूक नहीं कर रहे, जो उनके देश और वारिसों के तौर पर करना चाहिए. लाहौर में उनके नाम पर सड़क है और बांग्लादेश में पुराने ढाका के विक्टोरिया पार्क को उनका नाम दे दिया गया है.

लेकिन हम उनकी बदनसीबी लंबी करते जा रहे हैं? आखिर कब तक उन्हें इतने भर से संतुष्ट रहना होगा कि भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश के शासक म्यांमार जाते हैं, तो उनकी कब्र पर अकीदत के फूल चढ़ाने जरूर जाते हैं.

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