वैचारिक अधिकारों का तकाजा
विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार मानवीय अधिकारों का तकाजा है कि विचार-स्वातंत्र्य के अधिकार की महत्ता को सारा समाज समङो. उच्च शिक्षण संस्थाओं में बौद्धिक संगठनों को बढ़ावा मिलना चाहिए. यह अधिकार हमारी शिक्षा व्यवस्था को अर्थवत्ता देगा और समाज को सही नेतृत्व. देश की मानव संसाधन मंत्री ने शिक्षा के दो उद्देश्य गिनाये हैं- एक […]
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
मानवीय अधिकारों का तकाजा है कि विचार-स्वातंत्र्य के अधिकार की महत्ता को सारा समाज समङो. उच्च शिक्षण संस्थाओं में बौद्धिक संगठनों को बढ़ावा मिलना चाहिए. यह अधिकार हमारी शिक्षा व्यवस्था को अर्थवत्ता देगा और समाज को सही नेतृत्व.
देश की मानव संसाधन मंत्री ने शिक्षा के दो उद्देश्य गिनाये हैं- एक तो विद्यार्थियों को इस लायक बनाना कि वे कमा-खा सकें और दूसरा ‘शिक्षा के पर्याप्त अवसर होने चाहिए जहां छात्र खेल में दिलचस्पी बढ़ा सकें या फिर एक दिन मेरी तरह नेता बन सकें’. मेरी तरह नेता बन सकें से उनका जो भी मतलब रहा हो, लेकिन उनका यह कहना सही है कि शिक्षा का उद्देश्य मात्र रोजगार के लायक बनाना ही नहीं होना चाहिए.
और हमारी विसंगति यह है कि हम शिक्षा के वृहत्तर उद्देश्यों की बात तो करते हैं, पर शिक्षा के क्षेत्र में डंका रोजगारोन्मुख शिक्षा का ही बज रहा है. शिक्षा-नीति को लेकर तरह-तरह की जो बातें हो रही हैं, उनसे कुल मिला कर संभ्रम की स्थिति ही उभर कर सामने आती है. दुर्भाग्य ही है कि आज हमारी शिक्षा-व्यवस्था डिग्रीधारियों की लंबी-चौड़ी जमात बनाने का एक माध्यम बन कर रह गयी है.
होना तो यह चाहिए था कि कम से कम शिक्षा के क्षेत्र को राजनीति के दांव-पेंचों से बचा कर रखा जाता.
पर दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं रहा. अकसर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकारें दखलंदाजी करती रही हैं और अब तो स्थिति यह बन गयी है कि सरकार शिक्षाविदों को बाध्य करने के प्रयास करती नजर आने लगी हैं, ताकि वे वही-वही करें जो सरकारें अपने हितों की दृष्टि से उनसे करवाना चाहती हैं.
इसका एक ताजा उदाहरण आइआइटी मद्रास का है, जहां एक छात्र-संगठन की मान्यता इसलिए रद्द कर दी गयी, क्योंकि वह प्रधानमंत्री के सोच को बहस का विषय बना रहा था. मानव-संसाधन मंत्रलय को एक गुमनाम शिकायत मिली थी.
आंबेडकर और पेरियार के नामों और विचारों से जुड़े संगठन के विरुद्ध मिली इस शिकायत को मंत्रलय ने उक्त संस्थान के उत्तराधिकारियों के पास कार्रवाई के लिए भेज दिया और मंत्रलय की मंशा का अनुमान लगाते हुए संबंधित अधिकारियों ने छात्र-संगठन से बिना पूछताछ किये ही उसकी मान्यता रद्द कर दी. यह अविवेकशील निर्णय का उत्कृष्ट उदाहरण है. हालांकि अब प्रतिबंध हटा लिया गया है.
जनतांत्रिक व्यवस्था हमें यह अवसर और अधिकार देती है कि हम अपने नेतृत्व के वैचारिक आधार और विस्तार के बारे में विचार-विमर्श करें, और उसे समझने की कोशिश करें, उसका समर्थन या विरोध करें.
आइआइटी मद्रास में जो कुछ हुआ, वह इसका बिल्कुल उल्टा है और दोष सिर्फ शिक्षा-मंत्रलय का नहीं है, दोष उन अधिकारियों का भी है, जिन्होंने अपने विवेक का उपयोग किये बिना निर्णय लेना जरूरी समझा. यदि आंबेडकर-पेरियार के नामों से जुड़ा यह संगठन कुछ गलत कर रहा है, तो उसे चिन्हित किया जाना जरूरी है.
उसकी जांच भी होनी चाहिए और यदि वह किसी अपराध की श्रेणी में आता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई भी होनी चाहिए. लेकिन किसी छात्र-संगठन के विरोध करने के अथवा अपनी भिन्न राय प्रकट करने के अधिकार को चुनौती देने का मतलब जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शो को चुनौती देना है. बहस एक प्रक्रिया नहीं, एक मूल्य भी है. भिन्न राय रखना मात्र विरोध नहीं होता, यह विरोध से कहीं अधिक व्यापक और सार्थक मूल्य है.
विचार पर किसी तरह का प्रतिबंध न केवल अजनतांत्रिक है, बल्कि अमानवीय भी है. माओ ने हजार फूल खिलने की बात कही थी, गांधी दूसरे के सत्य को समझने की जरूरत को रेखांकित करते थे, आंबेडकर मानवीय अधिकारों के पक्षधर थे, पेरियार विवेकहीन भेदभाव के विरोधी थे. यह सब उस शिक्षा का हिस्सा होना चाहिए, जिसे हम अपने भविष्य की नींव मजबूत बनाने के लिए जरूरी समझते हैं.
वैचारिक मतभेद उस वैचारिक स्वातंत्र्य का ही हिस्सा है, जो व्यक्ति को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया को गति देता है.ऐसी बौद्धिक संस्कृति को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए जो उद्देश्यपूर्ण विचार-विमर्श का गला घोंटती है, जिसमें मत-वैभिन्य को मात्र विरोध माना जाता है और विभिन्न मत वाले को दुश्मन. हमारे विश्वविद्यालय स्वस्थ वैचारिक बहस की प्रयोगशाला होने चाहिए और संबंधित क्षेत्र का दायित्व बनता है कि इस बहस को बढ़ावा देने में योगदान करें.
आइआइटी जैसे शिक्षण संस्थानों में प्रतिभाओं के सोचने-विचारने पर प्रतिबंध लगाने का मतलब एक स्वस्थ समाज के रूप में स्वयं को विकसित होने पर प्रतिबंध लगाना है. हमारे राजनीतिक नेतृत्व को यह बात समझनी जरूरी है. आंबेडकर-पेरियार के नाम, और संभवत सोच, से भी जुड़ा यह छात्र-संगठन एक अकेली लड़ाई लड़ रहा है. वस्तुत: यह लड़ाई हर सोचने-समझनेवाले व्यक्ति की है. यह वैचारिक स्वतंत्रता का मुद्दा है.
मानवीय अधिकारों का तकाजा है कि विचार-स्वातंत्र्य के अधिकार की महत्ता को सारा समाज समङो. विश्वविद्यालयों एवं उच्च शिक्षण संस्थाओं में बौद्धिक संगठनों को बढ़ावा भी मिलना चाहिए और स्वतंत्रता भी. यह अधिकार हमारी शिक्षा व्यवस्था को अर्थवत्ता देगा और समाज को सही नेतृत्व.