फिर वही ढाक के तीन पात!
नयी सरकार से नयी उम्मीदें क्या फिर धरी ही रह जायेंगी? कम समय में ज्यादा काम करने की चुनौती क्या सरकार नहीं निभा पायेगी? ऐसी कामना तो कोई नहीं करेगा. लेकिन, झारखंड सचिवालय में सरकारी कामकाज की जो रफ्तार दिख रही है, उससे तो यही कहा जा सकता है कि झारखंड के विकास पर कोई […]
नयी सरकार से नयी उम्मीदें क्या फिर धरी ही रह जायेंगी? कम समय में ज्यादा काम करने की चुनौती क्या सरकार नहीं निभा पायेगी? ऐसी कामना तो कोई नहीं करेगा. लेकिन, झारखंड सचिवालय में सरकारी कामकाज की जो रफ्तार दिख रही है, उससे तो यही कहा जा सकता है कि झारखंड के विकास पर कोई गंभीर नहीं है. झारखंड में नयी सरकार बनी, तो मंत्री राजेंद्र सिंह ने घोषणा की थी कि कोई भी मंत्री तीन दिन से ज्यादा फाइल को लटका कर नहीं रखेगा.
इस घोषणा की दो माह में ही हवा निकल गयी. सबसे ज्यादा फाइलें कांग्रेसी मंत्रियों के पास ही लटकी हैं. अब इसे क्या कहेंगे मंत्री जी! ऐसे तो इस राज्य का भला नहीं हो सकता. मंत्रियों को अपनी जिम्मेवारी निभानी ही होगी. दो माह पुरानी इस सरकार के पास कई अहम फाइलें लटकी हुई हैं. इससे न सिर्फ विकास कार्य बाधित हो रहा है, बल्कि अल्पसंख्यक छात्रों को छात्रवृत्ति से भी महरूम होना पड़ रहा है. जो फाइलें लटकी हैं, वे उद्योगों को पूंजीगत अनुदान देने, टाटा स्टील के एमओयू के विस्तारीकरण, सभी प्रखंडों में पांच-पांच किमी सड़क निर्माण, अल्पसंख्यक छात्र-छात्रओं को छात्रवृत्ति, साइकिल वितरण व झारखंड एकेडमिक काउंसिल के सदस्यों के चयन से संबंधित हैं. ये ऐसे मामले हैं, जो राज्य में विकास व शिक्षा को गति प्रदान करने के लिए अहम हैं. अब ऐसे मुद्दों पर सरकार गंभीर नहीं है, तो नयी सरकार के गठन का फायदा क्या? क्या सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री या मंत्री कहलाने के लिए सरकार का गठन किया गया? ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि झामुमो व कांग्रेस के बीच सरकार गठन के पूर्व लोकसभा सीट को लेकर जो रजामंदी हुई थी, वह भी अब टूटती नजर आ रही है.
ऐसे में अगर आनेवाले दिनों में कांग्रेस कोई ठोस कदम उठाती है तो फिर इस सरकार का क्या होगा. राजनीति में वादाखिलाफी कोई नयी बात नहीं है. लेकिन, विकास के मुद्दे पर अल्पकालीन सरकार बनती है, तो गंठबंधन में शामिल सभी दलों को स्वहित को छोड़ कर राज्यहित के बारे में सोचना चाहिए. यह झारखंड के लिए शाप बनता जा रहा है कि सरकार गठन के कुछ माह बाद ही दरार उभरने लगती है. ऐसे में झारखंड विकास की राह पर दौड़ने के बदले फिर से रेंगता नजर आने लगता है.