खाद्य सुरक्षा और खाद्यान्नों की महंगाई
।। कृष्ण प्रताप सिंह।।(वरिष्ठ पत्रकार) एक विज्ञापन ‘भारत निर्माण’ यह दावा करता है कि मनमोहन सरकार ने ज्यादातर कृषि उपजों के समर्थन मूल्य दोगुने कर दिये हैं, जिससे प्रोत्साहित होकर किसानों ने उत्पादन में इतनी वृद्घि कर दी है कि देश खाद्य सुरक्षा के दौर में पहुंच गया है. विज्ञापन में इस तथ्य का जिक्र […]
।। कृष्ण प्रताप सिंह।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
एक विज्ञापन ‘भारत निर्माण’ यह दावा करता है कि मनमोहन सरकार ने ज्यादातर कृषि उपजों के समर्थन मूल्य दोगुने कर दिये हैं, जिससे प्रोत्साहित होकर किसानों ने उत्पादन में इतनी वृद्घि कर दी है कि देश खाद्य सुरक्षा के दौर में पहुंच गया है. विज्ञापन में इस तथ्य का जिक्र नहीं है कि जिस अवधि में समर्थन मूल्यों के दोगुने किये जाने की बात कही जा रही है, उसमें उपज में वृद्घि के लिए जरूरी बीज, उर्वरक, कीटनाशक और बिजली या डीजल से सिंचाई पर आने वाली लागत कितने गुना बढ़ी है? फिर उपजों के दाम बढ़ते जाने से ही किसान सुखी होते हों, तो उन्हें इसके लिए उस राज्य प्रायोजित महंगाई का शुक्रगुजार होना चाहिए, जो इधर के बरसों में समर्थन मूल्यों के आगे-आगे चलती आयी है.
सच्चाई यह है कि कृषिमंत्री शरद पवार के दावों के विपरीत इन समर्थन मूल्यों और महंगाई में से किसी एक का लाभ भी किसानों को नहीं मिलता. बाजार की शक्तियों ने सरकारों से साठ-गांठ करके किसानों को लाचार करने के इतने हथकंडे विकसित कर लिये हैं कि वे लाभ की कड़ी में कहीं रह ही नहीं गये हैं. खाद्यान्न जब तक किसानों के पास होते हैं, उनकी कीमतें बढ़ने का नाम तक नहीं लेतीं. जब वे हार कर उनको बिचौलियों, व्यवसाइयों या सरकारी एजेंसियों को औने-पौने बेंच देते हैं, तो उनकी कीमतें ऐसे बढ़ने लगती हैं, जैसे कोई वाहन ऊबड़-खाबड़ रास्तों से निकलकर सड़क पर आते ही सरपट दौड़ने लगता है.
इस गोरखधंधे को समझ कर ही समझा जा सकता है कि क्यों आटे-दाल की भीषण महंगाई के बावजूद उनके उत्पादकों की इतनी भी आय नहीं हो पाती कि वे अपनी लागत की भरपायी कर सकें? और क्यों कज्रे का जाल उनकी आत्महत्याओं के फंदे बनाता रहता है? मानव जीवन के लिए जरूरी शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं के साथ डीजल-पेट्रोल आदि के दाम लगातार क्यों बढ़ रहे हैं और क्यों टीवी, फ्रिज, एसी व कार आदि के दाम कम ही हैं? क्यों पिछले दो दशकों में खाद्यान्न कई गुने महंगे हो गये हैं और कारें हैं कि ‘सस्ती’ होती जा रही हैं? अरसा पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा था कि इसका कारण हम भारतीयों का पेटू होना है. वे इस तथ्य को छुपाना चाहते थे कि बड़ी से बड़ी मुनाफाखोरी से भी हमारे देश में कुलांचती उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का पेट नहीं भर रहा. उन्हीं के दबाव में सरकारों द्वारा ऐसी नीतियां बनायी जाती हैं कि खाद्यान्नों की उत्पादन लागत घटाने के लिए कुछ भी करना संभव न हो सके. खाद्यान्न खुले में सड़ता रहे, पर खाने वालों तक न पहुंचे.
देश में भूमंडलीकरण के दो दशकों में आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें तय करने में बाजार की शक्तियों की भूमिका बढ़ती गयी है. इन शक्तियों द्वारा कभी दूध, कभी दाल, कभी प्याज तो कभी किसी और खाने की चीज के निर्यात, कथित रूप से कमजोर फसल अथवा प्राकृतिक आपदा में उसके नष्ट होने/सड़ने आदि के बहाने कृत्रिम अभाव पैदा कर दिया जाता है. तेल कंपनियों को तो अब जब भी चाहें दाम बढ़ाने की छूट है. कई बार ऐसा खेल भी देखा गया है कि ज्यादा उत्पादन की बात कह कर किसानों को ऊंची कीमतें दिलाने या बहुत नीचे न जाने देने के तर्क से किसी खाद्यान्न को खासी सस्ती दर पर निर्यात कर दिया गया. फिर कुछ ही दिनों बाद कमी बताकर कई गुना महंगा आयात किया गया.
इधर नये अर्थशास्त्री मांग व पूर्ति के सिद्घांत से आगे के सिद्धांत निकाल लाये हैं. पूर्ति पर बाजार का नियंत्रण हो, तो मांग उपभोक्ताओं की क्रयशक्ति पर निर्भर करती है. उनके पास क्रय शक्ति न हो या अपनी मांग को नियंत्रित करने की क्षमता हो, तो उत्पादक कंपनियों द्वारा विलासिता की वस्तुओं के दाम बढ़ा कर अपना मुनाफा बढ़ाने की कोशिशें सफल नहीं होतीं. इसलिए वे दाम बढ़ा कर मुनाफा बढ़ाने की नीति तभी अपनाती हैं, जब आश्वस्त हों कि ऐसा करने पर भी मांग घटेगी नहीं. ऐसा सिर्फ आवश्यक वस्तुओं के साथ हो सकता है. विलासिता की वस्तुओं के दाम बढ़ा दिये जायें, तो उपभोक्ता उनकी मांग को नियंत्रित करने की अपनी क्षमता का इस्तेमाल करने लगते हैं. इसलिए कंपनियां जैसे भी बने, उनके दाम स्थिर रखती हैं. कई बार नये उपभोक्ताओं/ग्राहकों की तलाश में दाम घटाती भी हैं. मददगार सरकारी नीतियां इसमें उनके बहुत काम आती हैं.
इसके विपरीत खाद्य पदार्थो, ईंधन, दवा, चिकित्सा व शिक्षा सेवाओं की मांग में उन्हें महंगी किये जाने के बावजूद खास कमी नहीं आती और इनकी आपूर्ति या विपणन में लगी कंपनियों का मुनाफा बढ़ता ही बढ़ता है. इस स्थिति को बदले बिना खाद्यान्नों के दामों को किसान हितकारी या खाद्यसुरक्षा को किसानसुरक्षा बनाना संभव नहीं है.