भारत-म्यांमार सीमा पर उग्रवादी अड्डों पर हमले हमारी सैनिक और कूटनीतिक क्षमता के सराहनीय उदाहरण हैं. पिछले दिनों मणिपुर में 18 भारतीय सैनिकों की हत्या के जिम्मेवार नेशनलिस्ट सोशलिस्ट कौंसिल ऑफ नागालैंड (खापलांग) के म्यांमार सीमा में स्थित दो शिविरों को इन हमलों में तबाह कर दिया गया है और आधिकारिक आकलन के मुताबिक, इसमें 20 से अधिक उग्रवादी मारे गये हैं. यह कार्रवाई एक तरफ जहां मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का नतीजा है, वहीं इसकी सफलता के पीछे म्यांमार के साथ वर्षो से चल रहे सकारात्मक कूटनीतिक प्रयास भी है.
म्यांमार के सैनिक शासन के साथ 1990 के दशक से ही सैन्य सहायता के जरिये भारत ने सहयोग और विश्वास का माहौल बनाया है. वर्ष 1995 में भारतीय सेना की 57वीं डिवीजन ने म्यांमार सेना के साथ मिल कर ‘ऑपरेशन गोल्डेन बर्ड’ नामक कार्रवाई में 38 उग्रवादी मार गिराया था तथा 118 को हिरासत में लिया था. दोनों देशों ने जनवरी, 2006 में म्यांमार सीमा के भीतर कुछ ऑपरेशन किये थे. 2010 में दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ था जिसमें भारत को म्यांमार की सीमा के भीतर उग्रवादियों पर हमले की अनुमति दी गयी थी. पिछले साल मई महीने में सीमा-क्षेत्र में निगरानी और गुप्त सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए भी समझौता हुआ था.
विभिन्न देशों के बीच ऐसे ताल-मेल से दक्षिणी एशिया में उग्रवाद और आतंकवाद की समस्या पर काबू पाने में मदद मिल सकती है और उम्मीद है कि यह संदेश पड़ोसी देश समङोंगे. लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि सैन्य कार्रवाई पूवरेत्तर की अशांति का स्थायी समाधान नहीं हो सकता है. केंद्र और राज्य सरकारों को उन कारणों पर गंभीरता से विचार करना होगा, जिनके कारण पूवरेत्तर की आबादी के एक हिस्से में भारत के प्रति असंतोष है. ईरोम शर्मिला और अन्य कार्यकर्ता तथा संस्थाएं सरकारी और सैनिक दमन और शोषण को रेखांकित करते रहे हैं, परंतु हमारी सरकारों ने उन पर समुचित ध्यान नहीं दिया है. त्रिपुरा में राजनीतिक कोशिशों से शांति का वातावरण बना है तथा राज्य के निवासियों में सरकार के प्रति भरोसा बना है. पूवरेत्तर भारत में सर्वागीण विकास के उद्देश्य के साथ लोकतांत्रिक प्रयासों की दरकार है.